नई दिल्ली: भारत और चीन के बीच ब्रह्मपुत्र नदी को लेकर चर्चा अकसर उभरती है, खासकर तब जब भारत-पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौते को लेकर तनाव बढ़ता है. हालांकि दोनों नदी तंत्रों की परिस्थितियां और भू-राजनीतिक स्थितियां बिल्कुल अलग हैं.
जहां सिंधु नदी पर भारत का ऊपरी नियंत्रण पाकिस्तान के लिए रणनीतिक रूप से संवेदनशील है, वहीं ब्रह्मपुत्र के संदर्भ में भारत की स्थिति अपेक्षाकृत मजबूत है — लेकिन पूरी तरह निश्चिंत नहीं.
ब्रह्मपुत्र में अधिकांश जल प्रवाह भारत के भीतर
ब्रह्मपुत्र, जिसे चीन में यारलुंग त्सांगपो कहा जाता है, तिब्बत से निकलकर अरुणाचल प्रदेश होते हुए असम और फिर बांग्लादेश में प्रवेश करती है.
वास्तव में, नदी का लगभग 86% जल प्रवाह भारत में आने के बाद बनता है — जिसमें दिबांग, लोहित और सियांग जैसी सहायक नदियों और प्रचुर वर्षा का योगदान प्रमुख है. केवल 14% जल तिब्बत से आता है, यानी चीन भले स्रोत-क्षेत्र पर नियंत्रण रखता हो, लेकिन वह भारत की जल-आपूर्ति पर प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं रखता.
पाकिस्तान के लिए सिंधु एक जीवनरेखा
पाकिस्तान की कृषि, पीने का पानी और उद्योग, सिंधु नदी पर अत्यधिक निर्भर हैं. इसलिए यदि भारत सिंधु जल संधि को निलंबित करता है या जल के प्रवाह को कम करता है, तो इसका पाकिस्तान की आर्थिक संरचना पर व्यापक असर हो सकता है.
ब्रह्मपुत्र के मामले में भारत पर चीन का ऐसा रणनीतिक दबाव नहीं बन पाता. यह एक बड़ी भौगोलिक व जलविज्ञानीय राहत है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई खतरा नहीं है.
भारत के लिए जोखिम: जानबूझकर छोड़ा गया पानी
चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र पर बनाए जा रहे बांध भारत के लिए जल अभाव से अधिक बाढ़ प्रबंधन की चुनौती बनते जा रहे हैं.
2000 में तिब्बत में एक प्राकृतिक बांध टूटने से आई अचानक बाढ़ ने अरुणाचल प्रदेश में काफी तबाही मचाई थी. अगर चीन बिना पूर्व चेतावनी के अचानक पानी छोड़ता है — चाहे वह जानबूझकर हो या रखरखाव की चूक — तो निचले हिस्सों में बसे भारत के पूर्वोत्तर राज्य गंभीर रूप से प्रभावित हो सकते हैं.
जलवायु परिवर्तन: एक उभरती हुई चुनौती
ग्लोबल वार्मिंग के चलते हिमनदों से जल प्रवाह में गिरावट और अत्यधिक वर्षा पर बढ़ती निर्भरता ने ब्रह्मपुत्र क्षेत्र को अस्थिर बना दिया है. रिपोर्टों के मुताबिक तिब्बत क्षेत्र में बर्फबारी और ग्लेशियल मेल्ट 22% तक कम हो सकती है, जिससे नदी के प्रवाह में मौसमी असंतुलन और अनिश्चितता बढ़ेगी.
इसका प्रभाव खासकर असम और अरुणाचल प्रदेश जैसे बाढ़-संवेदनशील राज्यों पर पड़ेगा.
जानकारी की पारदर्शिता: चीन की रणनीतिक बढ़त
भले ही चीन जल प्रवाह को नियंत्रित न कर पाए, लेकिन वह सूचनाओं पर नियंत्रण के माध्यम से भारत के लिए स्थिति को जटिल बना सकता है.
फिलहाल चीन सिर्फ मानसून सीजन में बाढ़ से जुड़ी जानकारी साझा करता है. सालभर के आंकड़े, जल भंडारण की मात्रा या जल छोड़े जाने की योजनाओं पर कोई नियमित पारदर्शिता नहीं है.
चीन ने न तो 1997 के संयुक्त राष्ट्र जल-साझाकरण समझौते को मान्यता दी है और न ही किसी जल-राजनय में सक्रिय भागीदारी दिखाई है.
चीन की बांध परियोजनाएं: संभावित खतरा
चीन द्वारा ग्रेट बेंड के पास प्रस्तावित 60 गीगावॉट की हाइड्रो प्रोजेक्ट, दुनिया के सबसे बड़े हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स में से एक होगी.
हालांकि चीन दावा करता है कि ये ‘रन-ऑफ-द-रिवर’ परियोजनाएं हैं — यानी पानी रोका नहीं जाएगा — लेकिन इन बांधों की श्रृंखला खुद में प्रवाह के समय और मात्रा को बदल सकती है, जिससे भारत के बाढ़-प्रवण इलाकों में खतरा बढ़ जाता है.
भारत के लिए समाधान: रणनीति जरूरी
भारत को चीन के इरादों का जवाब सुव्यवस्थित विज्ञान, तकनीक और बुनियादी ढांचे से देना होगा. राजनीतिक बयानबाज़ी या केवल राजनयिक विरोध पर्याप्त नहीं होगा. संभावित उपायों में शामिल हैं:
इसके साथ ही, भारत को जल कूटनीति और डेटा साझाकरण पर आधारित द्विपक्षीय संवाद को भी प्राथमिकता देनी चाहिए.
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