द हेग (नीदरलैंड्स): नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (NATO) की वर्तमान समिट, जो नीदरलैंड के हेग शहर में जारी है, सदस्य देशों के बीच उभरते रणनीतिक मतभेदों और भविष्य की दिशा को लेकर एक निर्णायक पड़ाव बन गई है. यह समिट उस समय हो रही है जब मिडिल ईस्ट में ईरान-इजराइल संघर्ष हाल ही में एक अस्थायी विराम (सीजफायर) के साथ रुका है, और वैश्विक सुरक्षा के प्रति अस्थिरता की भावना पहले से कहीं ज्यादा प्रबल है.
ट्रंप की सख्त मांग: रक्षा खर्च में बड़ा इज़ाफा
समिट के केंद्र में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की वह मांग है, जिसके तहत वह चाहते हैं कि सभी सदस्य देश अपनी GDP का कम से कम 5% रक्षा क्षेत्र में खर्च करें. यह मांग फिलहाल लागू 2% के मौजूदा लक्ष्य से कहीं अधिक है. ट्रंप का तर्क है कि अमेरिका दशकों से NATO का आर्थिक बोझ उठा रहा है, जबकि यूरोपीय देश अपेक्षाकृत कम योगदान दे रहे हैं.
लेकिन इस मांग ने गठबंधन के भीतर काफी असहजता पैदा कर दी है. स्पेन ने इस प्रस्ताव को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया है, यह कहते हुए कि वह अपनी GDP का केवल 2.1% तक ही रक्षा खर्च में दे सकता है. फ्रांस, इटली, कनाडा और बेल्जियम जैसे देश भी इस लक्ष्य को अव्यवहारिक और असंतुलित मानते हैं.
मार्क रूटे का समझौता प्रस्ताव: 3.5%-1.5% फॉर्मूला
स्थिति को संतुलित करने के प्रयास में NATO महासचिव मार्क रूटे ने एक नया व्यावहारिक प्रस्ताव पेश किया है. इसमें सदस्य देशों से GDP का 3.5% सीधे सैन्य खर्च और 1.5% रक्षा से संबंधित अन्य गतिविधियों पर खर्च करने की सिफारिश की गई है. प्रस्ताव में 1.5% का इस्तेमाल अपेक्षाकृत लचीला रखा गया है, जिससे देश इसे अपने अनुसार परिभाषित कर सकें – जैसे साइबर सुरक्षा, सैन्य अनुसंधान या आपदा प्रबंधन.
हालांकि, कई छोटे पूर्वी यूरोपीय देश जैसे पोलैंड, एस्टोनिया और लिथुआनिया, जो रूस से खतरा अधिक महसूस करते हैं, इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे हैं. लेकिन अधिकतर पश्चिमी यूरोपीय देश इस वित्तीय बोझ को अपने सामाजिक और आर्थिक हालात के अनुरूप नहीं मानते.
NATO के भीतर अविश्वास: Article 5 पर संदेह
मंगलवार को हुई शुरुआती बैठकों में ट्रंप द्वारा NATO की सुरक्षा की आधारशिला माने जाने वाले Article 5 (एक देश पर हमले को सभी देशों पर हमला मानना) को पूरी तरह से समर्थन न देने के बयान ने गहरी चिंता पैदा की. उन्होंने स्पष्ट किया कि यदि कोई सदस्य देश आवश्यक रक्षा खर्च नहीं करता, तो अमेरिका उसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध नहीं रहेगा.
यह स्थिति न केवल संगठन की एकता के लिए चुनौती है, बल्कि उन छोटे देशों के लिए भी खतरे की घंटी है जो पूरी तरह से NATO की सुरक्षा गारंटी पर निर्भर हैं.
रूस पर चुप्पी, यूक्रेन को हाशिए पर रखा गया
पिछले वर्षों की NATO समिट्स में रूस और यूक्रेन के मुद्दे सबसे आगे रहे हैं. लेकिन इस बार रणनीति में बदलाव साफ देखा जा सकता है. रूस पर खुली चर्चा से परहेज किया गया है ताकि ट्रंप जैसे नेताओं से टकराव टाला जा सके. यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को आमंत्रण भेजा गया है, लेकिन उन्हें केवल प्री-सम्मिट डिनर तक सीमित रखा गया है. इस कदम को कई विशेषज्ञ यूक्रेन के लिए 'राजनयिक डाउनग्रेड' मान रहे हैं.
वहीं, यह खबर भी आई है कि अमेरिका NATO के पूर्वी हिस्सों से कुछ सैनिकों को वापस बुलाने की योजना बना रहा है. यह कदम यूरोपीय देशों में सुरक्षा को लेकर चिंता को और गहरा कर सकता है.
NATO का अतीत: ऐतिहासिक मतभेद और असहमति
NATO के इतिहास में यह पहली बार नहीं है जब संगठन को भीतरी मतभेदों का सामना करना पड़ रहा है. 1966 में फ्रांस ने अमेरिका और ब्रिटेन के प्रभुत्व के विरोध में NATO की संयुक्त सैन्य कमान से खुद को अलग कर लिया था. हालांकि, 2009 में फिर से पूर्ण सैन्य सदस्यता ले ली गई थी.
ग्रीस और तुर्किये के बीच 1974 में साइप्रस मुद्दे को लेकर उत्पन्न विवाद भी एक बड़ा झटका था, जिसमें ग्रीस ने अस्थायी रूप से सैन्य भागीदारी छोड़ दी थी.
हाल के वर्षों में तुर्की और अमेरिका के बीच भी तनाव पैदा हुआ है – विशेषकर जब अमेरिका ने सीरिया में कुर्द लड़ाकों को समर्थन दिया और तुर्की ने रूस से S-400 मिसाइल प्रणाली खरीदी. इस कदम को NATO सुरक्षा ढांचे के लिए खतरा मानते हुए अमेरिका ने तुर्की को F-35 कार्यक्रम से बाहर कर दिया.
हंगरी की राजनीति भी NATO के लिए एक जटिल चुनौती बन चुकी है. प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन के रूस समर्थक रुख और प्रेस स्वतंत्रता पर सवालों ने संगठन के लोकतांत्रिक मूल्यों को झटका दिया है.
ट्रंप की धमकी: NATO की सदस्यता पर पुनर्विचार
राष्ट्रपति ट्रंप के विचार NATO के भविष्य को लेकर गंभीर सवाल खड़े करते हैं. वह लंबे समय से अमेरिका के इस गठबंधन में भूमिका पर सवाल उठाते आए हैं. 2016 में उन्होंने यहां तक कहा था कि अगर कोई देश रक्षा खर्च के 2% लक्ष्य को पूरा नहीं करता, तो रूस द्वारा हमला होने की स्थिति में अमेरिका उसकी मदद नहीं करेगा. 2024 में एक इंटरव्यू में तो उन्होंने रूस को ऐसे देशों पर हमला करने के लिए 'प्रोत्साहित' करने की बात तक कह दी थी.
इन बयानों ने अमेरिका की सुरक्षा प्रतिबद्धताओं की विश्वसनीयता को लेकर वैश्विक चिंता को जन्म दिया है.
क्या NATO बदलते दौर में टिक पाएगा?
NATO का गठन 1949 में शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए किया गया था. तब से यह संगठन शांति और सामूहिक सुरक्षा का एक प्रतीक रहा है. लेकिन आज, ट्रंप की पुनरावर्ती नीतियों, खर्च को लेकर मतभेदों, और रूस जैसे खतरों के सामने संयुक्त रणनीति की कमी ने इस संगठन के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं.
NATO महासचिव रूटे का विश्वास है कि अंततः रूस की ओर से साझा खतरा सभी देशों को एकजुट रखेगा. लेकिन इस बार की समिट यह जरूर तय करेगी कि आने वाले वर्षों में NATO की भूमिका केवल सैन्य गठबंधन तक सीमित रहेगी, या वह वैश्विक सुरक्षा की एक सशक्त राजनीतिक संस्था के रूप में खुद को पुनर्परिभाषित करेगा.
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