नेतन्याहू के खिलाफ क्यों नहीं जाते ट्रंप? इजरायल के लिए युद्ध में उतरने से भी परहेज नहीं, आखिर इतना प्यार क्यों?

    जब भी इज़रायल पर कोई संकट आता है, अमेरिका उसके लिए ढाल बनकर खड़ा हो जाता है.

    Trump never go against Netanyahu going to war for Israel why
    ट्रंप-नेतन्याहू | Photo: ANI

    दुनिया में बहुत से देश हैं, बहुत से दोस्त हैं, लेकिन इज़रायल के लिए अमेरिका का प्यार कुछ अलग ही दर्जे का है. जब भी इज़रायल पर कोई संकट आता है, अमेरिका उसके लिए ढाल बनकर खड़ा हो जाता है. इज़रायल सही हो या गलत, अमेरिका हर कीमत पर उसका साथ देता है. ऐसा क्यों? आखिर क्यों एक छोटा सा देश अमेरिका के लिए इतना खास है कि उसके लिए वो अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि दांव पर लगा देता है?

    अभी हाल में जब ईरान ने इज़रायल के खिलाफ सैन्य बढ़त हासिल करनी शुरू की, तो अमेरिका ने एक पल भी गंवाए बिना खुलकर मोर्चा संभाल लिया. अमेरिकी बमवर्षकों ने सीधे ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर हमला कर दिया. ये कोई पहला मौका नहीं है, जब अमेरिका ने इज़रायल का कंधा थामकर मैदान में उतरने का ऐलान किया हो. दरअसल, ये रिश्ता दशकों पुराना है, जिसकी जड़ें इतिहास में बहुत गहराई तक धंसी हैं.

    11 मिनट की मान्यता और एक नई शुरुआत

    1948 में जैसे ही ब्रिटेन ने इस इलाके से अपना साम्राज्य समेटा, डेविड बेन गुरियन ने इज़रायल के स्वतंत्र देश होने की घोषणा कर दी. दुनिया अभी इसे समझ भी नहीं पाई थी कि महज 11 मिनट में अमेरिका ने इसे मान्यता दे दी. अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने उस वक्त जो कदम उठाया, उसने इज़रायल की किस्मत हमेशा के लिए बदल दी.

    द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यहूदियों के लिए एक 'सुरक्षित घर' की मांग अमेरिका में राजनीतिक, धार्मिक और भावनात्मक समर्थन हासिल कर चुकी थी. अमेरिका में यहूदी लॉबी, जिसका वोट बैंक काफी मजबूत था, ने इस समर्थन को और पक्का कर दिया.

    संयुक्त राष्ट्र से लेकर ज़मीनी हकीकत तक

    1947 में जब संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन को अरब और यहूदी राज्यों में बांटने का प्रस्ताव पास हुआ, तब भी अमेरिका ने इज़रायल के पक्ष में वोट किया. अगर अमेरिका उस वक्त साथ न देता, तो शायद इज़रायल जैसा कोई देश आज इस नक्शे पर न होता.

    समय के साथ इज़रायल ने न सिर्फ खुद को मजबूत किया, बल्कि फिलिस्तीन के हिस्सों पर भी कब्जा जमाया, लेकिन अमेरिका की नीति में कोई फर्क नहीं आया. इज़रायल के हर कदम को वॉशिंगटन से समर्थन मिलता रहा.

    आर्थिक मदद – पैसे की नहर, जो कभी सूखती नहीं

    इज़रायल के जन्म के बाद उसके शुरुआती साल अमेरिका की आर्थिक मदद के भरोसे ही टिके. अमेरिकी यहूदी समुदाय ने निजी स्तर पर जबरदस्त फंडिंग की. यूनाइटेड ज्यूइश अपील जैसे संगठनों ने इज़रायल के लिए अरबों डॉलर जुटाए. भले ही शुरू में अमेरिका ने हथियार सीमित दिए, लेकिन 1950 के दशक के बाद से अमेरिका ने इज़रायल को आधुनिक हथियारों से लैस करना शुरू कर दिया.

    यहूदी लॉबी – वाशिंगटन की सत्ता का अदृश्य नियंत्रक

    अमेरिका में यहूदी समुदाय सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक ताकत भी है. अमेरिकन इज़रायल पब्लिक अफेयर्स कमिटी (AIPAC) जैसी लॉबी संस्थाएं अमेरिकी संसद और राष्ट्रपति तक अपनी सीधी पकड़ रखती हैं. अमेरिका में 70 लाख से ज्यादा यहूदी रहते हैं, और ये समुदाय हर चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाता है. कोई भी अमेरिकी नेता अगर इज़रायल विरोधी बयान दे, तो उसके करियर का अंत तय है.

    इज़रायल – अमेरिका का वफादार रणनीतिक सिपाही

    अमेरिकी थिंक टैंक The Ink Post के मुताबिक, 1950 और 60 के दशक में पश्चिम एशिया में सोवियत संघ का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था. मिस्र, सीरिया और इराक जैसी ताकतें सोवियत के पाले में थीं. ऐसे में अमेरिका को इस क्षेत्र में एक भरोसेमंद साथी चाहिए था – और इज़रायल ने ये भूमिका बखूबी निभाई.

    1967 की छह दिन की जंग और 1973 के योम किप्पुर युद्ध में अमेरिका ने खुलकर इज़रायल का साथ दिया. ऑपरेशन 'निकेल ग्रास' के तहत अमेरिका ने युद्ध के बीचों-बीच इज़रायल को हथियारों की सप्लाई की. इज़रायल धीरे-धीरे अमेरिका का पश्चिम एशिया में एक 'सैन्य अड्डा' बन गया.

    ट्रंप भी न रोक पाए मदद

    डोनाल्ड ट्रंप के पिछले कार्यकाल में अमेरिका ने दुनिया भर में सैन्य और आर्थिक मदद घटाई, लेकिन इज़रायल के लिए ये नियम लागू नहीं हुआ. सालाना करीब 4 अरब डॉलर की सैन्य सहायता आज भी इज़रायल को मिलती है. F-35 जैसे सुपरफाइटर जेट्स से लेकर 'आयरन डोम' मिसाइल डिफेंस सिस्टम तक, अमेरिका सबसे घातक हथियार सबसे पहले इज़रायल को देता है. इज़रायल अब अमेरिका के हथियारों का 'टेस्टिंग ग्राउंड' भी बन चुका है.

    मोसाद और CIA – खुफिया दुनिया के भाई-भाई

    मोसाद और CIA के रिश्ते दुनिया की सबसे खतरनाक खुफिया साझेदारियों में गिने जाते हैं. ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए दोनों एजेंसियों ने 2010 से कई गुप्त मिशन, साइबर अटैक (Stuxnet वायरस) और जासूसी ऑपरेशन मिलकर चलाए हैं. दोनों देशों की खुफिया एजेंसियों के बीच ये दोस्ती 'अदृश्य जंग' में भी गहरी है.

    ईसाई इवैंजेलिकल्स – इज़रायल के लिए अमेरिकी वोट बैंक

    अमेरिका की करीब 25% आबादी इवैंजेलिकल ईसाइयों की है, जो मानते हैं कि इज़रायल का अस्तित्व बाइबिल की भविष्यवाणियों को पूरा करेगा. उनके लिए इज़रायल 'ईश्वर की भूमि' है, और इस देश का बचा रहना मसीहा के दोबारा आगमन की शर्त है. अमेरिकी राजनेता इस धार्मिक वोट बैंक को कभी नजरअंदाज नहीं कर सकते. यही वजह है कि रिपब्लिकन हों या डेमोक्रेट – हर कोई इज़रायल के साथ मजबूती से खड़ा दिखता है.

    अमेरिका की राष्ट्रीय प्राथमिकता – इज़रायल

    अमेरिका ने इज़रायल की सुरक्षा को अपनी 'राष्ट्रीय प्राथमिकता' घोषित कर रखा है. इसका मतलब है – इज़रायल का अस्तित्व, सैन्य शक्ति और क्षेत्रीय दबदबा हर हाल में कायम रखना. अगर कोई देश (ईरान, हमास, हिज़्बुल्ला) इज़रायल के खिलाफ खड़ा हो, तो अमेरिका बिना देर किए उसकी सैन्य और कूटनीतिक मदद करेगा. इस नीति में कोई भी अमेरिकी सरकार बदलाव करने की हिम्मत नहीं करती.

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