अफगानिस्तान की धरती एक बार फिर जंग का मैदान बन गई है—इस बार दुश्मन बाहर से आया है, लेकिन मंशा वही पुरानी है: लूट, कब्जा और दबदबा. बदख्शां के बाशा प्रांत में फैला तनाव अब हथियारों तक पहुंच गया है. ए बुजुर्ग जिले में मौजूद एक सोने की खदान पर स्थानीय निवासियों और चीनी इंजीनियरों-सुरक्षा कर्मियों के बीच खून-खराबा हो गया.
हिंसा इस कदर बढ़ी कि एक स्थानीय नागरिक की मौत हो गई, जबकि कई तालिबान इंजीनियरों के घायल होने की खबर है. अभी तक तालिबान प्रशासन ने आधिकारिक रूप से न तो मृतकों की संख्या बताई है और न ही घायलों की स्थिति पर कुछ कहा है. लेकिन इलाके में तैनात की गई अतिरिक्त तालिबान फोर्स इस बात का साफ संकेत है कि हालात बेकाबू हो चुके हैं.
मामला क्या है?
बदख्शां के जिस इलाके में ये खदानें हैं, वहां न केवल सोना और चूना पत्थर के भंडार मौजूद हैं, बल्कि माणिक और लेपिस लजूली जैसे बेशकीमती रत्न भी पाये जाते हैं. 2024 में तालिबान प्रशासन ने इन खनिज संसाधनों के दोहन के लिए कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को ठेके दिए थे. इनमें से अधिकांश ठेके चीन की कंपनियों के हाथ लगे. तालिबान का दावा था कि स्थानीय लोग अवैध खनन कर रहे थे, इसीलिए ये सौदे ज़रूरी थे.
लेकिन, स्थानीय आबादी की कहानी बिल्कुल अलग है. उनका कहना है कि ये खदानें उनके पूर्वजों की हैं, और अब चीन के जरिए तालिबान इनसे उनका हक छीन रहा है.
हिंसा कैसे भड़की?
प्राप्त रिपोर्टों के अनुसार, बीते सप्ताह जब चीनी इंजीनियर और उनके निजी सशस्त्र गार्ड खदान में खुदाई कर रहे थे, तभी बड़ी संख्या में स्थानीय लोग वहां पहुंच गए और विरोध जताने लगे. कहासुनी के बाद मामला हाथापाई और फिर गोलीबारी में बदल गया.
इस टकराव में एक स्थानीय युवक की मौत हो गई. वहीं, झड़प के दौरान मौजूद कुछ तालिबान इंजीनियर और मजदूर भी घायल हुए. हालांकि, किसी चीनी कर्मी के घायल होने की पुष्टि नहीं हुई है. तालिबान शासन ने फौरन इलाके में अर्धसैनिक बलों को भेजा, लेकिन तनाव अभी भी कायम है.
राजनीति और लालच की गठजोड़
बदख्शां सिर्फ खनिजों के लिए ही नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक रूप से भी बेहद संवेदनशील इलाका है. यहीं से चीन-अफगानिस्तान को जोड़ने वाली सड़क का निर्माण हो रहा है, जो चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट का हिस्सा है.
लेकिन इससे भी बड़ा मसला है अफीम और नशे के काले कारोबार का, जिसमें इसी इलाके के कुछ तालिबान गुटों की हिस्सेदारी बताई जाती है. इन सबके बीच अब चीनी कंपनियां भी ‘साझेदार’ बनकर इलाके पर नियंत्रण चाह रही हैं. पर न स्थानीय लोग चुप बैठने को तैयार हैं, न तालिबान के दूसरे गुट. यही वजह है कि हिंसा अब सिर्फ खदान तक सीमित नहीं रही—बल्कि एक बड़े संघर्ष की भूमिका तैयार हो चुकी है.
एक बड़ा संकेत
इस घटना ने अफगानिस्तान की नई हकीकत पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है. क्या तालिबान शासन सच में देश का रखवाला है, या सिर्फ एक दलाल, जो अंतरराष्ट्रीय ताकतों के हाथों अपनी जमीन बेच रहा है? चीन की खनन नीति पहले ही अफ्रीका, पाकिस्तान और सेंट्रल एशिया में आलोचना का शिकार रही है, जहां वो “विकास” के नाम पर संसाधनों को लूटता है और स्थानीय आबादी को दरकिनार करता है. अफगानिस्तान अब उसका अगला शिकार बनता दिख रहा है.
ये जमीन हमारी है
यह झड़प एक इत्तेफाक नहीं थी, बल्कि गहराते असंतोष का नतीजा है. अफगानों की नजर में चीन बाहरी लुटेरा है, और तालिबान उसका दरबारी. बदख्शां के कई बुजुर्गों और स्थानीय नेताओं ने चेतावनी दी है कि अगर यह दोहन जारी रहा, तो यह क्षेत्र फिर से एक विद्रोही युद्धक्षेत्र बन जाएगा. अब सवाल ये है कि क्या चीन अफगानिस्तान की चुप जमीन पर अपने मशीनी पंजे गाड़ पाएगा, या वहां की मिट्टी एक बार फिर विदेशी कब्जाधारियों को उखाड़ फेंकेगी?
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