जब ईरान पर अमेरिकी बमबारी हुई, तो दुनिया की नजर उसके तथाकथित करीबी सहयोगियों पर थी—खासतौर पर चीन पर. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में चीन ने वही किया जो वो अक्सर करता है: मौके पर मौन और मंच पर बयान.
ईरान के तीन न्यूक्लियर ठिकानों पर अमेरिका के हमले के बाद चीन ने प्रतिक्रिया दी, लेकिन बेहद सीमित. उसने निंदा तो की, पर सिर्फ कूटनीतिक शब्दों में. उसने हमलों को अंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यवस्था के लिए खतरा बताया और संयुक्त राष्ट्र में मामला उठाया, लेकिन इससे आगे कोई सख्त रुख नहीं अपनाया.
चीन-ईरान के रिश्ते: सिर्फ लेन-देन?
चीन और ईरान के बीच लंबे समय से गहरे आर्थिक और रणनीतिक संबंध हैं. चीन, ईरान से भारी मात्रा में कच्चा तेल खरीदता है, जो उसकी ऊर्जा जरूरतों का अहम हिस्सा है. इसके अलावा, दोनों देश समय-समय पर सैन्य अभ्यास करते रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी चीन ने ईरान को समर्थन देने की बात की है. लेकिन जब सीधी टकराव की बारी आई, चीन ने पीछे हटने में ही समझदारी समझी.
अमेरिका से डर या रणनीति?
विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन का यह सतर्क रुख उसकी रणनीतिक सोच का हिस्सा है. वह नहीं चाहता कि ईरान के समर्थन में खुलकर आने से उसकी अमेरिकी संबंधों पर आंच आए, खासकर जब उसका व्यापार और तकनीकी निवेश अमेरिका से गहराई से जुड़ा हुआ है. वहीं, ईरान से भी उसका रिश्ता पूरी तरह खत्म न हो—इसीलिए उसने दोनो तरफ की ‘नाराजगी’ झेलने का रास्ता चुना.
चीन की यह नीति साफ दर्शाती है कि वो 'दो नावों की सवारी' कर रहा है. वो दुनिया को ये संदेश देना चाहता है कि वह एक जिम्मेदार शक्ति है, जो तनाव में मध्यस्थता कर सकती है—बिना खुद को जोखिम में डाले.
चीन की चुप्पी क्या संकेत देती है?
इस पूरे मामले में चीन का रवैया कुछ सवाल खड़े करता है:
इतिहास देखें तो यही रवैया रूस-यूक्रेन युद्ध में भी नजर आया था. चीन ने रूस का खुला समर्थन नहीं किया, बल्कि संतुलन साधने की कोशिश की. और अब ईरान के मामले में भी उसकी यही रणनीति सामने आ रही है.
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