मध्य पूर्व में सैन्य और राजनीतिक संतुलन साधने की अमेरिकी कोशिशों को उस समय बड़ा झटका लगा, जब लेबनान की सेना ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह हिज़बुल्लाह के खिलाफ कोई ऐसा कदम नहीं उठाएगी, जो देश की शांति को खतरे में डाले. अमेरिकी दबाव के बावजूद, न तो सेना और न ही लेबनानी नेतृत्व फिलहाल इस संवेदनशील मुद्दे पर अमेरिका की लाइन को स्वीकार करने को तैयार हैं.
17 अगस्त को अमेरिकी प्रतिनिधि थॉमस बैरक और मॉर्गन ऑर्टेगस लेबनान की राजधानी बेयरूत पहुँचे, जहां उन्होंने राष्ट्रपति जोसेफ औन, प्रधानमंत्री नवाफ सलाम और संसद अध्यक्ष नबीह बेरी से मुलाकात की. बैरक की सीधी बातचीत सेना प्रमुख जनरल रोडोल्फ हेकल से भी हुई, जिसमें उनसे पूछा गया कि क्या सेना हिज़बुल्लाह को हथियार डालने पर मजबूर कर सकती है. जनरल हेकल का जवाब साफ था — "हम देश की स्थिरता से कोई समझौता नहीं कर सकते."
सरकार के अंदरूनी मतभेद और शिया समुदाय की प्रतिक्रिया
सलाम सरकार द्वारा तैयार किए गए एक रोडमैप में वर्ष 2026 तक हिज़बुल्लाह को निरस्त्र करने की योजना है. लेकिन इस प्रस्ताव ने सरकार को ही असहज स्थिति में डाल दिया है. लेबनानी अधिकारियों ने अमेरिकी दूतों से साफ कह दिया कि किसी भी तरह की कार्रवाई से पहले इज़राइल को भी जवाबदेह बनाना होगा. वहीं शिया समुदाय ने सरकार की योजना को पूरी तरह खारिज कर दिया है. हिज़बुल्लाह समर्थकों ने चेतावनी दी है कि "अगर जरूरत पड़ी तो हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेंगे."
धार्मिक नेतृत्व की तीखी चेतावनी
लेबनान के प्रभावशाली जाफरी मुफ्ती अहमद कबालान ने राष्ट्रपति को सख्त संदेश देते हुए कहा है कि हिज़बुल्लाह को कमजोर करने की कोई भी कोशिश देश को गृहयुद्ध की ओर धकेल सकती है. उन्होंने यह भी कहा कि "हिज़बुल्लाह और सेना, दोनों मिलकर लेबनान की सुरक्षा की रीढ़ हैं, और उन्हें अलग करना देश की संप्रभुता को कमजोर करना है."
इज़राइल की तैयारी और बढ़ता तनाव
दूसरी ओर, इज़राइली सेना ने दक्षिणी लेबनान में अपनी चौकियों को मज़बूत करना शुरू कर दिया है. सेना प्रमुख एयाल जामिर ने कब्ज़े वाले इलाकों से पीछे हटने की संभावना से इनकार कर दिया है, जिससे लेबनानी सरकार की स्थिति और भी पेचीदा हो गई है.
अमेरिकी नीति की विफलता के कारण
हालिया वार्ता में अमेरिकी प्रतिनिधियों ने यह तर्क दिया कि इज़राइल को भी अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करना होगा. लेकिन लेबनानी नेतृत्व को इन आश्वासनों पर भरोसा नहीं है. पिछले वर्ष हिज़बुल्लाह के वरिष्ठ नेता फौआद शुकर की हत्या और उसके बाद सैय्यद हसन नसरल्लाह की मौत—दोनों घटनाएं ऐसे समय पर हुईं जब अमेरिका शांति की बातें कर रहा था. इससे अमेरिका की नीयत और नीतियों पर संदेह और गहरा हो गया है.
यह भी पढ़ें: 'मुनरो डॉक्ट्रिन' की आड़ में पुतिन की नई रणनीति! यूक्रेन के बाद अब किसपर हमला करने जा रहे रूसी राष्ट्रपति?