मध्य पूर्व में इजरायल और ईरान के बीच बढ़ते युद्ध के बीच, कई मुस्लिम देशों की प्रतिक्रियाएं अंतरराष्ट्रीय जगत में चर्चा का विषय बनी हुई हैं. पाकिस्तान, जिसने लंबे समय से ईरान को 'भाई मुल्क' कहकर पुकारा है, इस टकराव में खुलकर इजरायल की निंदा करता दिखाई दिया. लेकिन सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान की ये हमदर्दी सिर्फ राजनीतिक दिखावा है?
अगर पाकिस्तान वास्तव में ईरान का इतना बड़ा शुभचिंतक है, तो उसने अपने ‘भाई’ देश को परमाणु हथियार हासिल करने में कभी मदद क्यों नहीं की?
साझा मजहब, लेकिन अलग राह
पाकिस्तान और ईरान दोनों मुस्लिम बहुल देश हैं. मगर दोनों की मजहबी धाराएं अलग हैं—पाकिस्तान में सुन्नी बहुल आबादी है, जबकि ईरान एक शिया बहुल राष्ट्र है. इस धार्मिक अंतर के कारण दोनों देशों के रिश्ते हमेशा ‘निकट लेकिन नाजुक’ रहे हैं. इन रिश्तों में जितनी दोस्ती की बातें की जाती हैं, हकीकत उतनी ही राजनीतिक संतुलन और कूटनीतिक संकोच से भरी है.
ए.क्यू. खान नेटवर्क की छाया
पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर कभी भी ईरान को परमाणु हथियार विकसित करने में मदद नहीं की. लेकिन 1980 और 1990 के दशक में पाकिस्तान के मशहूर वैज्ञानिक डॉ. ए.क्यू. खान के गुप्त परमाणु नेटवर्क के जरिए ईरान को संवेदनशील तकनीक, सेंट्रीफ्यूज डिज़ाइन और यूरेनियम संवर्धन से जुड़ी जानकारी हासिल हुई. यह वही तकनीक थी, जिसकी झलक ईरान के नतान्ज संयंत्र में देखने को मिली और जो पाकिस्तान के कहूटा प्रयोगशाला से काफी मिलती-जुलती थी.
हालांकि, यह सहयोग ज्यादा लंबा नहीं चला. जैसे ही 2000 के दशक की शुरुआत में ए.क्यू. खान नेटवर्क की पोल खुली, पाकिस्तान पर अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसियों का जबरदस्त दबाव बढ़ गया. आर्थिक और सैन्य प्रतिबंधों की आशंका ने इस “भाईचारे” को वहीं रोक दिया.
क्यों नहीं दिया खुलेआम सहयोग?
पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम मूल रूप से भारत के खिलाफ रणनीतिक संतुलन बनाने के लिए विकसित किया गया था, न कि किसी दूसरे देश को परमाणु शक्ति बनाने के लिए. अगर पाकिस्तान ने ईरान को सक्रिय रूप से मदद दी होती, तो वह मध्य एशिया में अपनी खास स्थिति खो देता—एकमात्र इस्लामिक परमाणु शक्ति के तौर पर उसकी रणनीतिक पहचान धुंधली पड़ जाती.
साथ ही, ईरान को परमाणु हथियारों की ओर धकेलना क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को अस्थिर कर सकता था. इससे सऊदी अरब और खाड़ी के देशों में असंतोष फैलता—वे देश जो पाकिस्तान के प्रमुख आर्थिक और रणनीतिक साझेदार हैं.
सऊदी अरब का दबाव और अंतरराष्ट्रीय समीकरण
ईरान और सऊदी अरब के बीच दशकों पुरानी प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर है. पाकिस्तान ने हमेशा अपने आर्थिक हितों को देखते हुए खाड़ी देशों के साथ संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है. ऐसे में ईरान को परमाणु शक्ति बनने में सहयोग करना, पाकिस्तान के लिए अपने ही सबसे बड़े फाइनेंसरों को नाराज़ करने जैसा होता.
पाकिस्तान खुद कर्ज, तेल और प्रवासी श्रमिकों के मसलों में सऊदी अरब और यूएई पर निर्भर है. इस लिहाज से ईरान को हथियारों की तकनीक देना, आत्मघाती कदम होता.
‘भाईचारे’ का सच
पाकिस्तान की राजनीति में ‘भाई मुल्क’ शब्द अक्सर इस्तेमाल होता है, मगर ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही है. पाकिस्तान ने कूटनीति, धार्मिक नेतृत्व और रणनीतिक समीकरणों के बीच हमेशा सावधानीपूर्वक संतुलन बनाने की कोशिश की है.
ईरान के साथ खुलकर परमाणु सहयोग न करना एक ऐसा फैसला था जो उसकी अंतरराष्ट्रीय स्थिति, आर्थिक भविष्य और सामरिक पहचान—तीनों के लिए जरूरी था. ऐसे में इस्लामाबाद के शब्दों में ईरान के लिए जो ‘भाईचारा’ है, वह सिर्फ बोलचाल में है, व्यवहार में नहीं.
ये भी पढ़ेंः 40 हजार अमेरिकी सैनिकों के साथ युद्ध में उतरेगा अमेरिका! 3 मुस्लिम देश लिखेंगे ईरान की तबाही की कहानी?