गाज़ा पट्टी एक बार फिर मलबे में तब्दील हो चुकी है. बमों की गूंज, खून से लथपथ सड़कों और रोते-बिलखते मासूमों की तस्वीरें हर दिन दुनिया के सामने आ रही हैं. इस विनाश की ज़िम्मेदारी दुनिया के कई देश सीधे तौर पर इजरायल और प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को दे रहे हैं. अरब और मुस्लिम देशों में इस हिंसा को लेकर गुस्सा तो है, निंदा के बयान भी खूब आ रहे हैं. लेकिन सवाल वही पुराना है- जब गाज़ा जल रहा है, तब मुस्लिम देश एक साथ आकर इजरायल के खिलाफ सीधी कार्रवाई क्यों नहीं करते?
आखिर वह कौन-सी वजहें हैं जो इतने शक्तिशाली मुस्लिम देशों को सिर्फ बोलने तक सीमित रखती हैं? आइए इस सवाल का गहराई से विश्लेषण करते हैं.
मुस्लिम देश इजरायल पर हमला क्यों नहीं करते?
जब भी गाज़ा पर हमला होता है, तब दुनियाभर के मुस्लिम देशों में आक्रोश की लहर दौड़ जाती है. सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक विरोध प्रदर्शन देखने को मिलते हैं. कई देशों के नेता इजरायल की तीखी आलोचना भी करते हैं, लेकिन इसके बावजूद युद्ध जैसी कोई कार्रवाई नहीं होती. ऐसा क्यों?
इसका सबसे बड़ा कारण राजनीतिक मजबूरियाँ और अंतरराष्ट्रीय समीकरण हैं. बहुत से मुस्लिम देशों के अमेरिका और यूरोपीय देशों से मजबूत कूटनीतिक और आर्थिक रिश्ते हैं, जो इजरायल के मुख्य समर्थक हैं. ऐसे में अगर कोई मुस्लिम देश इजरायल पर सीधा हमला करता है, तो उसे न सिर्फ पश्चिमी देशों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है, बल्कि आर्थिक और सैन्य रूप से भी उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है.
साथ ही, कई मुस्लिम देशों के आपसी रिश्ते भी एक जैसे नहीं हैं. अरब जगत में गुटबंदी, घरेलू राजनीतिक संकट, और अंतरराष्ट्रीय एजेंडे इतने पेचीदा हैं कि वे एकजुट होकर कोई ठोस कदम नहीं उठा पाते. कुछ देशों ने इजरायल के साथ गुप्त या सार्वजनिक व्यापारिक और सुरक्षा समझौते भी किए हैं, जो उन्हें सीधी सैन्य टकराव की राह से दूर रखते हैं.
क्या इजरायल से डरते हैं मुस्लिम देश?
इजरायल भले ही आकार में छोटा देश हो, लेकिन उसकी सैन्य ताकत किसी भी बड़े देश से कम नहीं है. वह तकनीकी रूप से बेहद उन्नत, सैन्य दृष्टि से सशक्त और रणनीतिक रूप से चालाक देश माना जाता है. उसके पास दुनिया के सबसे एडवांस मिसाइल डिफेंस सिस्टम्स में से एक 'Iron Dome' है, जो दुश्मन के हमलों को हवा में ही नष्ट कर देता है.
इसके अलावा इजरायल के पास परमाणु हथियार होने का भी दावा किया जाता है, जिससे उसकी ताकत और भय दोनों कई गुना बढ़ जाते हैं. इन हथियारों की मौजूदगी एक तरह से मनोवैज्ञानिक दबाव बनाती है खासकर उन देशों पर जो परमाणु ताकत नहीं रखते.
इतना ही नहीं, इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद दुनिया की सबसे खतरनाक एजेंसियों में से एक मानी जाती है, जिसकी पकड़ सिर्फ युद्ध क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती, बल्कि गुप्त अभियानों में भी उसकी गिनती शीर्ष पर होती है.
अमेरिका और यूरोप का दबाव क्यों है इतना मजबूत?
इजरायल को अंतरराष्ट्रीय मंच पर सबसे मजबूत समर्थन अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों से मिलता है. अमेरिका ना सिर्फ इजरायल का सबसे बड़ा सैन्य और आर्थिक सहयोगी है, बल्कि हर बड़े वैश्विक मंच पर उसका सबसे मुखर पक्षधर भी है. संयुक्त राष्ट्र में भी जब इजरायल के खिलाफ प्रस्ताव आते हैं, तो अक्सर अमेरिका वीटो कर देता है.
अब अगर कोई मुस्लिम देश इजरायल पर सीधा हमला करता है, तो उसे पश्चिमी देशों के प्रतिबंध, फंडिंग रोकने और ट्रेड सैंक्शंस जैसी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. यह डर इतना बड़ा है कि कई देशों की पूरी अर्थव्यवस्था हिल सकती है. साथ ही, अमेरिका की कई सैन्य बेस भी मुस्लिम देशों में हैं, जिससे वे पश्चिमी दबाव के अधीन माने जाते हैं.
क्या सिर्फ समर्थन और बयानबाज़ी ही काफी?
हर बार जब गाज़ा में खून बहता है, तो सोशल मीडिया पर हैशटैग्स ट्रेंड करने लगते हैं, सड़कों पर प्रदर्शन होते हैं, और अरब देशों से तीखी प्रतिक्रियाएं आती हैं. लेकिन यह सब सीमित होता है- निंदा, शोक और कड़ी प्रतिक्रिया तक.
क्योंकि असल में जो ज़रूरी होता है- एकजुटता, रणनीतिक योजना, और राजनीतिक इच्छाशक्ति वो नज़र नहीं आती. समर्थन सिर्फ शब्दों में नहीं, कार्यों में झलकना चाहिए, लेकिन फिलहाल वह कमी नजर आती है. कुछ देश मानवीय मदद या संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव पास कराने की कोशिश करते हैं, लेकिन जमीनी हालात में बड़ा बदलाव नहीं आता.
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