पाकिस्तान की राजनीति में सेना की भूमिका हमेशा से निर्णायक रही है. देश के निर्माण के बाद से ही वहां की सिविल सरकारें बार-बार सैन्य हस्तक्षेप का शिकार होती रही हैं. लेकिन सिर्फ घरेलू राजनीति ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी पाकिस्तानी फौज का कद असामान्य रूप से बड़ा रहा है. खासतौर पर अमेरिका जैसे महाशक्ति राष्ट्र के साथ पाकिस्तान के रिश्तों में अक्सर सेना ही केंद्र में रही है, न कि नागरिक नेतृत्व.
हाल ही में एक बार फिर यह पैटर्न सामने आया जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर के साथ विशेष लंच बैठक की, और उनकी खुले दिल से तारीफ की. यह घटना कोई नई नहीं है, बल्कि दशकों पुरानी उस नीति की कड़ी है, जिसमें वॉशिंगटन की नजर हमेशा इस्लामाबाद की वर्दीधारी सत्ता पर रही है.
अयूब खान से लेकर मुनीर तक- लंबा इतिहास
पाकिस्तान के पहले सैन्य तानाशाह जनरल अयूब खान ने 1958 में एक सैन्य तख्तापलट के जरिए सत्ता हथियाई थी. अयूब का दावा था कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन के बेहद करीबी हैं, और यही समीकरण उन्होंने सत्ता बनाए रखने के लिए खूब भुनाया. अयूब खान के समय में अमेरिका ने पाकिस्तान को सामरिक दृष्टि से अहम सहयोगी माना, खासकर तब, जब शीत युद्ध के दौरान अमेरिका को दक्षिण एशिया में एक मजबूत साझेदार की जरूरत थी.
अयूब खान ने अमेरिका की मदद से न सिर्फ घरेलू विपक्ष को दबाया, बल्कि सेना को भी पहले से कहीं ज्यादा शक्तिशाली बना दिया. वह पाकिस्तान के पहले फील्ड मार्शल बने. और अब, दशकों बाद, जनरल असीम मुनीर देश के दूसरे फील्ड मार्शल बने हैं और अमेरिकी नेतृत्व से सीधा संवाद रखने वाले पहले आर्मी चीफ भी, जिन्होंने बिना किसी तख्तापलट के वॉशिंगटन में राष्ट्रपति स्तर पर सम्मान पाया.
तानाशाही को तरजीह, लोकतंत्र से दूरी
वॉशिंगटन की विदेश नीति अक्सर रणनीतिक जरूरतों पर आधारित रही है, और यही वजह है कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकारों की तुलना में सैन्य शासन को अमेरिका ने अधिक महत्व दिया. कारण साफ है: सेना से डील करना आसान होता है, उसके फैसले तेजी से होते हैं, और राजनीतिक विरोध की गुंजाइश कम होती है.
यह नीति उस समय स्पष्ट रूप से सामने आई जब जनरल जिया-उल-हक पाकिस्तान में सत्ता पर काबिज हुए. उन्होंने 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार को हटाकर सत्ता पर कब्जा किया. जिया की कट्टर नीतियां, इस्लामीकरण, और लोकतंत्र विरोधी रुख के बावजूद अमेरिका ने उन्हें खुला समर्थन दिया.
1980 के दशक में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, तो अमेरिका को एक रणनीतिक मोर्चे की तलाश थी. जिया ने खुद को इस युद्ध का मुख्य खिलाड़ी बना दिया. इसके बदले में अमेरिका ने उन्हें भारी सैन्य और आर्थिक सहायता दी. इससे न सिर्फ जिया की सत्ता मजबूत हुई, बल्कि पाकिस्तान में कट्टरता की जड़ें और गहरी हो गईं.
मुशर्रफ और वॉशिंगटन की "मजबूत दोस्ती"
1999 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज़ शरीफ की लोकतांत्रिक सरकार को गिरा दिया और खुद सत्ता संभाली. शुरुआत में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने उनकी आलोचना की, लेकिन 9/11 के बाद अमेरिका ने यू-टर्न लिया. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद अमेरिका को अफगानिस्तान पर कार्रवाई के लिए एक मजबूत सहयोगी चाहिए था, और पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति ने उसे मजबूरी में चुना.
मुशर्रफ ने इस मौके को भुनाया और तालिबान नेताओं से लेकर आतंकवादी नेटवर्क तक, सब कुछ अमेरिका के सामने परोस दिया. इसके बदले में अमेरिका ने उन्हें "आतंक के खिलाफ लड़ाई का हीरो" बना दिया, और पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सहायता दी.
नागरिक सरकारों के साथ तनावपूर्ण रिश्ते
जब-जब पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकारें आईं, अमेरिका के साथ रिश्तों में खटास देखी गई. चाहे यूसुफ रजा गिलानी की सरकार हो या नवाज़ शरीफ का कार्यकाल, अमेरिका ने इन्हें कम महत्व दिया. ट्रंप के पहले कार्यकाल में भी यही देखा गया. उन्होंने पाकिस्तान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया और मदद में कटौती कर दी.
लेकिन अब, जैसे ही पाकिस्तान में सेना का प्रभाव फिर से पूरी तरह स्पष्ट हुआ, अमेरिका की प्राथमिकताएं भी बदलती दिखीं. ट्रंप ने अपने हालिया रवैये में नागरिक नेतृत्व को नजरअंदाज करते हुए सेना प्रमुख असीम मुनीर से सीधी बातचीत को तरजीह दी. यह बताता है कि अमेरिका को अब भी पाकिस्तान में असली सत्ता का केंद्र कौन लगता है.
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