ट्रंप से गुस्सा या नेतन्याहू से बैर! फिलिस्तीन के मुसलमानों के साथ गलबहियां क्यों करने लगे मैक्रों? समझिए

    फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने साफ-साफ कह दिया है कि वो फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देंगे.

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    नेतन्याहू-मैक्रों | Photo: X

    गाजा पट्टी में लगातार बमबारी, बच्चों की लाशें, और दुनिया के तमाम देशों की बेचैनी के बीच अब एक और भूचाल आया है- इस बार राजनीतिक. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने साफ-साफ कह दिया है कि वो फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देंगे. उन्होंने यह भी ऐलान कर दिया है कि इस प्रस्ताव को वो सितंबर 2025 में संयुक्त राष्ट्र की बैठक में पेश करेंगे.

    यह सिर्फ एक राजनयिक घोषणा नहीं है. यह उस देश से आया बयान है, जहां यूरोप के सबसे ज़्यादा यहूदी रहते हैं. एक देश जहां मुसलमानों की भी बड़ी आबादी है. ऐसे में सवाल यही है—मैक्रों ने ये फैसला अभी क्यों लिया? इसके पीछे सिर्फ इंसानियत है या कोई राजनीतिक गणित भी?

    फ्रांस फिर से लौट रहा है अपनी 'अरब नीति' पर

    सबसे पहले इतिहास समझते हैं. 1958 में जब चार्ल्स डी गॉल फ्रांस के राष्ट्रपति बने, तब उन्होंने इजराइल को खटकने वाला एक कदम उठाया—अरब नीति की वापसी. इजराइल से परमाणु सहयोग खत्म किया गया, हथियार देने से मना किया गया और फिलिस्तीन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया गया. 1974 में यूएन में फ्रांस ने फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) को मान्यता दी और 1975 में उसे पेरिस में ऑफिस खोलने की इजाजत भी दी गई.

    हालांकि बाद के दशकों में फ्रांस इस पॉलिसी से धीरे-धीरे पीछे हटता गया. लेकिन अब ऐसा लगता है कि मैक्रों पुराने रास्ते पर लौटना चाह रहे हैं. क्या ये मानवीयता का मामला है या कुछ और?

    क्या यह मैक्रों की 2033 की रणनीति है?

    मैक्रों का कार्यकाल 2027 में खत्म होगा, लेकिन उन्होंने अभी से 2033 के चुनाव की बात छेड़ दी है. एक रैली में उन्होंने खुद कहा- "मुझे 2033 में आपकी जरूरत होगी." अब ध्यान दीजिए, फ्रांस में मुसलमानों की आबादी करीब 13% है. यह पश्चिमी यूरोप में सबसे ज़्यादा है. मैक्रों को ये अच्छी तरह पता है कि मुस्लिम वोट बैंक उनके समाजवादी झुकाव को ताकत देता है. ऐसे में फिलिस्तीन को मान्यता देना- इस्लामी दुनिया में फ्रांस की छवि को बेहतर बनाना और घरेलू राजनीति में मुस्लिम समुदाय को साधना- दोनों का मकसद साध सकता है.

    इजराइल को अलग-थलग करने की एक कूटनीतिक चाल?

    गाजा में जो हो रहा है, उसे लेकर इजराइल पर अंतरराष्ट्रीय दबाव लगातार बढ़ रहा है. उस पर नरसंहार के आरोप लगे हैं. ऐसे में जब फ्रांस जैसा ताकतवर यूरोपीय देश फिलिस्तीन को मान्यता देने की बात करता है, तो यह इजराइल के लिए बड़ा झटका होता है. अगर ब्रिटेन ने भी फ्रांस की राह पकड़ ली, तो इजराइल को पूरे यूरोप से कूटनीतिक झटका लग सकता है. ये एक तरह से उसका राजनीतिक 'आइसोलेशन' होगा, जिसे अमेरिका के अलावा कोई खुलकर बचाने वाला नहीं बचेगा.

    फिलिस्तीन को क्या मिल सकता है?

    फ्रांस ने अपने प्रस्ताव में कहा है कि फिलिस्तीन को अलग देश का दर्जा मिलना चाहिए, और उसे हमास राजनीतिक रूप से संचालित करे- शर्त ये कि हमास हथियार छोड़ दे. साफ है, मैक्रों फिलिस्तीन को वैध देश मानने को तैयार हैं, बशर्ते वहां आतंक और बंदूक की राजनीति खत्म हो.

    मगर यही बात इजराइल को नागवार गुजर रही है. उसका डर ये है कि अगर फिलिस्तीन को सेना रखने की छूट मिल गई, तो ईरान उसका फायदा उठाकर मिडिल ईस्ट में नया गेम खेल सकता है. नेतन्याहू का साफ कहना है कि फ्रांस का यह कदम “आतंक को मान्यता” देने जैसा है.

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