सुप्रीम कोर्ट ने देश में दहेज से जुड़े अपराधों पर गंभीर चिंता जताते हुए कहा है कि यह सामाजिक बुराई आज भी गहराई से जमी हुई है. अदालत ने सोमवार, 15 दिसंबर 2025 को टिप्पणी करते हुए कहा कि दहेज विरोधी कानून एक ओर जहां कई मामलों में प्रभावी साबित नहीं हो पा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इनके दुरुपयोग के आरोप भी सामने आते रहे हैं. इसके बावजूद, दहेज की वजह से महिलाओं के खिलाफ हिंसा और मौत के मामले लगातार सामने आ रहे हैं.
यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले की सुनवाई के दौरान की, जिसमें महज 20 साल की एक युवती को दहेज की मांग पूरी न होने पर उसके पति और सास ने केरोसिन डालकर जिंदा जला दिया था.
क्या एक महिला की कीमत दहेज तक सीमित है?
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने इस मामले को समाज के लिए झकझोरने वाला बताते हुए कहा कि दहेज के नाम पर एक युवा महिला को अत्यंत पीड़ादायक और अमानवीय मौत दी गई. अदालत ने भावुक शब्दों में कहा कि यह कल्पना से परे है कि सिर्फ इसलिए एक 20 वर्षीय लड़की को मार दिया गया क्योंकि उसके माता-पिता शादी के बाद की मांगें पूरी नहीं कर सके.
पीठ ने सवाल उठाया कि क्या एक महिला का जीवन सिर्फ एक रंगीन टीवी, मोटरसाइकिल और 15 हजार रुपये नकद के बराबर था, जो उसका परिवार नहीं दे पाया.
लंबित मामलों पर सुप्रीम कोर्ट का हाईकोर्ट्स को निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दहेज से जुड़े अपराधों से निपटने के लिए केवल कानून पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि सामूहिक सामाजिक प्रयासों की जरूरत है. इसी के तहत अदालत ने देश के सभी हाईकोर्ट्स को निर्देश दिया कि वे भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी (दहेज मृत्यु) और धारा 498-ए (विवाहित महिला के साथ क्रूरता) से जुड़े लंबित मामलों का विवरण जुटाएं.
अदालत ने कहा कि यह जानकारी सबसे पुराने मामलों से लेकर हालिया मामलों तक होनी चाहिए, ताकि इन प्रकरणों के शीघ्र निपटारे की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकें.
शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की भी जरूरत: सुप्रीम कोर्ट
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के लिए सोच में बदलाव जरूरी है. इसके लिए अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को सुझाव दिया कि वे शैक्षिक पाठ्यक्रमों में ऐसे सुधारों पर विचार करें, जिनसे यह संवैधानिक सिद्धांत मजबूत हो कि विवाह में दोनों पक्ष समान हैं और कोई भी एक-दूसरे के अधीन नहीं है.
अदालत ने कहा कि महिलाओं की समानता और गरिमा का विचार केवल कानूनों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह समाज की सोच का हिस्सा बनना चाहिए.
24 साल पुराना मामला, हाईकोर्ट के फैसले को पलटा
यह मामला उत्तर प्रदेश सरकार की उस अपील से जुड़ा था, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक पुराने फैसले को चुनौती दी गई थी. हाईकोर्ट ने वर्ष 2001 में पति और उसकी मां को बरी कर दिया था.
मृतका नसरीन की शादी अजमल बेग से हुई थी. शादी के कुछ समय बाद ही उस पर दहेज को लेकर दबाव बनाया जाने लगा. आरोप था कि पति और ससुराल वाले रंगीन टीवी, मोटरसाइकिल और 15 हजार रुपये नकद की मांग कर रहे थे और नसरीन को लगातार प्रताड़ित किया जा रहा था.
केरोसिन डालकर जिंदा जलाया गया
साल 2001 में हालात इस कदर बिगड़ गए कि नसरीन पर केरोसिन डालकर आग लगा दी गई. जब उसके मामा मौके पर पहुंचे, तब तक उसकी मौत हो चुकी थी. ट्रायल कोर्ट ने पति अजमल और उसकी मां को दोषी ठहराते हुए आईपीसी की धारा 304-बी और 498-ए के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 7 अक्टूबर 2003 को यह कहते हुए दोनों को बरी कर दिया था कि मृतका के मामा घटना के प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे, इसलिए उनकी गवाही स्वीकार्य नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने बहाल की दोषसिद्धि
उत्तर प्रदेश सरकार की अपील पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया और ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई दोषसिद्धि को बहाल कर दिया. अदालत ने पति अजमल को चार सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण कर आजीवन कारावास की सजा भुगतने का आदेश दिया.
हालांकि, कोर्ट ने आरोपी की मां की उम्र को देखते हुए, जो अब 94 वर्ष की हैं, उन्हें जेल भेजने से छूट दी.
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