एक साल में बदल गई दुनिया, इसकी गवाह है SCO की ये 2 तस्‍वीरें, अमेर‍िका के खिलाफ एक हो रहे कई देश!

    2025 में चीन के तिआनजिन शहर में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का शिखर सम्मेलन केवल एक सामान्य वार्षिक आयोजन नहीं था.

    The world is uniting against America in SCO Summit China
    प्रतिकात्मक तस्वीर/ ANI

    2025 में चीन के तिआनजिन शहर में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का शिखर सम्मेलन केवल एक सामान्य वार्षिक आयोजन नहीं था. यह एक वैश्विक संकेत था- एक नई व्यवस्था के उदय का, एक ऐसे युग की शुरुआत का जहां पश्चिमी प्रभुत्व को अब चुनौती दी जा रही है.

    अगर हम 2024 में अस्ताना (कजाखस्तान) में हुई SCO समिट की तुलना इस बार के सम्मेलन से करें, तो फर्क केवल चेहरों या भाषणों में नहीं, बल्कि दृष्टिकोण और ताकत के संतुलन में भी दिखाई देता है.

    2025 की SCO समिट क्यों है ऐतिहासिक?

    तिआनजिन सम्मेलन में इस बार न सिर्फ सदस्य देशों की भागीदारी ज्यादा थी, बल्कि ग्लोबल साउथ, यानी एशिया, अफ्रीका और विकासशील देशों की साझा आवाज पहले से कहीं ज्यादा मुखर दिखाई दी. एक ओर जहां अमेरिका और पश्चिमी गठजोड़ अब तक वैश्विक नीतियों को तय करते आ रहे थे, वहीं अब भारत, चीन और रूस जैसे देश समानांतर वैकल्पिक वैश्विक मंच तैयार कर रहे हैं.

    चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन जब ये तीनों नेता एक ही मंच पर मौजूद होते हैं, तो इसका अर्थ केवल "साझेदारी" नहीं, बल्कि एक नया भूराजनैतिक संतुलन भी होता है.

    2024 बनाम 2025: क्या है मुख्य अंतर?

    कम से अधिक की ओर बढ़ता संगठन

    2024 में मंच पर कुछ गिने-चुने राष्ट्राध्यक्ष ही मौजूद थे. ताजगी और महत्ता की कमी थी. 2025 में तस्वीर बिल्कुल उलटी थी मंच पर नेताओं की इतनी भीड़ थी कि यह आयोजन संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्था की छवि प्रस्तुत करता नजर आया.

    भारत-चीन-रूस की सक्रियता

    इस बार भारत और रूस के शीर्ष नेता भी व्यक्तिगत रूप से सम्मिलित हुए. यह उपस्थिति सिर्फ औपचारिक नहीं, बल्कि रणनीतिक और संदेशात्मक थी.

    नई भागीदारियों का उदय

    SCO के पारंपरिक सदस्यों के अलावा मध्य एशियाई देशों, दक्षिण एशिया, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया के प्रतिनिधि बड़ी संख्या में शामिल हुए. म्यांमार, नेपाल, मालदीव, मिस्र, मंगोलिया, अज़रबैजान, आर्मेनिया, तुर्की और इंडोनेशिया जैसे देशों की भागीदारी ने यह स्पष्ट कर दिया कि SCO अब केवल क्षेत्रीय संगठन नहीं रहा, बल्कि यह एक वैश्विक मंच बन चुका है.

    नाटो और G7 की टक्कर में SCO

    पश्चिमी संगठनों जैसे G7 या NATO अब तक वैश्विक नीतियों और फैसलों के केंद्र में रहे हैं. लेकिन इस समिट ने संकेत दिया है कि SCO अब उनकी विकल्प बनने की दिशा में गंभीरता से आगे बढ़ रहा है.

    तीन महाशक्तियों का शक्ति प्रदर्शन

    भारत, चीन और रूस इन तीनों देशों की रणनीतिक और राजनीतिक सोच काफी अलग है, लेकिन इनका एक मंच पर आना एक बड़ा संकेत देता है:

    • रूस के खिलाफ पश्चिमी प्रतिबंधों ने उसे एशिया के करीब ला दिया है.
    • चीन और अमेरिका के बीच टेक्नोलॉजी, व्यापार और ताइवान को लेकर तनाव लगातार बढ़ रहा है.
    • भारत और अमेरिका के बीच भी टैरिफ, डेटा नीति और रक्षा सौदों पर मतभेद उभरते रहे हैं.

    इस माहौल में जब इन तीनों महाशक्तियों के नेता SCO जैसे मंच पर साथ आते हैं, तो यह केवल सहयोग नहीं, बल्कि अमेरिका-प्रभुत्व वाली व्यवस्था को कूटनीतिक चुनौती देने का इशारा भी है.

    छोटे देशों की बड़ी भागीदारी

    2025 का SCO सम्मेलन केवल बड़ी शक्तियों की बात नहीं करता. यह उन देशों की आकांक्षाओं को भी आवाज देता है, जो अक्सर वैश्विक चर्चा से बाहर रह जाते हैं:

    • नेपाल, मालदीव, म्यांमार, मिस्र जैसे छोटे लेकिन रणनीतिक रूप से अहम देश अब पश्चिमी वित्तीय संस्थाओं और सुरक्षा गुटों पर निर्भर नहीं रहना चाहते.
    • विकास, कर्ज, खाद्य सुरक्षा और जलवायु चुनौतियों से जूझ रहे ये देश अब भारत और चीन के साथ साझेदारी की नई राह देख रहे हैं.
    • यह भी स्पष्ट हो रहा है कि दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के देश नई तकनीकों, निवेश और सुरक्षा सहयोग के लिए SCO को प्राथमिकता देने लगे हैं.

    अमेरिका के लिए संदेश

    इस सम्मेलन का सबसे बड़ा संदेश यही है कि अब "मोनोपोलर वर्ल्ड" (एकध्रुवीय दुनिया) की सोच पुरानी हो गई है. अमेरिका दशकों तक वैश्विक फैसलों में अंतिम आवाज बना रहा, लेकिन अब:

    • न तो अकेले अमेरिका की सैन्य ताकत डराने वाली रह गई है,
    • न ही डॉलर आधारित व्यवस्था अब एकमात्र रास्ता मानी जाती है.

    शी जिनपिंग और पुतिन पहले से ही खुले तौर पर अमेरिका की विदेश नीति की आलोचना कर चुके हैं, लेकिन अब भारत जैसे लोकतांत्रिक और संतुलित देश का भी SCO में मुखर रूप से सक्रिय होना इस बात का संकेत है कि "दक्षिण का नेतृत्व अब दक्षिण से ही होगा."

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