Independence Day 2025: 1947 का साल भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में सबसे निर्णायक और उथल-पुथल भरे वर्षों में से एक था. एक ओर भारत और पाकिस्तान आज़ाद देशों के रूप में उभर रहे थे, तो दूसरी ओर लाखों लोगों को विस्थापन, सांप्रदायिक हिंसा और असुरक्षा का सामना करना पड़ा. इसी उथल-पुथल के बीच एक और बड़ा सवाल धीरे-धीरे एक गंभीर संकट का रूप लेता गया- जम्मू और कश्मीर का भविष्य.
जम्मू-कश्मीर एक रियासत थी जो ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं थी, बल्कि एक अलग 'प्रिंसली स्टेट' थी, जिसे यह तय करने का अधिकार था कि वह भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ जुड़ना चाहता है या स्वतंत्र रहना चाहता है. लेकिन इसके निर्णय में हुई देरी और पाकिस्तान की जल्दबाज़ी ने इस क्षेत्र को भारत-पाकिस्तान के पहले सशस्त्र संघर्ष की ओर धकेल दिया.
महाराजा हरि सिंह का दुविधा भरा निर्णय
महाराजा हरि सिंह, जो कि जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन शासक थे, शुरू से ही स्वतंत्र रहना चाहते थे. वे भारत या पाकिस्तान, किसी भी देश के साथ तुरंत विलय करने के पक्ष में नहीं थे. उनकी यही अनिर्णय की स्थिति पाकिस्तान के लिए एक मौका बन गई.
कश्मीर की भौगोलिक स्थिति भी रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण थी, यह न केवल भारत और पाकिस्तान की सीमा से सटा था, बल्कि चीन और अफगानिस्तान की सीमाओं के पास भी स्थित था. इसलिए दोनों देशों के लिए यह एक संवेदनशील और महत्वाकांक्षी क्षेत्र बन गया था.
पाकिस्तान की योजना और हमला
पाकिस्तान की सरकार ने एक रणनीति अपनाई: कबायली लड़ाकों (Tribal Militants) को कश्मीर में भेजा गया, जिन्हें 'स्वतंत्रता सेनानी' के रूप में पेश किया गया, लेकिन उनके पीछे सैन्य और राज्य का पूरा समर्थन था.
22 अक्टूबर 1947 को हजारों सशस्त्र कबायली लड़ाके पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र से बारामूला और मुजफ्फराबाद के रास्ते कश्मीर में घुस आए. उनका उद्देश्य स्पष्ट था- जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करके उसे पाकिस्तान का हिस्सा बनाना.
इन कबायलियों ने रास्ते में लूटपाट, हत्या और महिलाओं के साथ अत्याचार जैसे घिनौने काम किए, जिससे स्थानीय नागरिकों में भय फैल गया. श्रीनगर की तरफ बढ़ते इन लड़ाकों को रोक पाना कश्मीर की सीमित सैन्य ताकत के लिए असंभव हो गया.
भारत का हस्तक्षेप और विलय पत्र पर हस्ताक्षर
इन हालातों में महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद की अपील की. लेकिन भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि सैन्य सहायता तभी दी जाएगी जब जम्मू-कश्मीर आधिकारिक रूप से भारत का हिस्सा बन जाए.
26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ Instrument of Accession यानी विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए. इस दस्तावेज़ के अनुसार, जम्मू-कश्मीर अब भारत का कानूनी हिस्सा बन गया. अगले ही दिन, यानी 27 अक्टूबर 1947, भारतीय वायुसेना ने श्रीनगर एयरपोर्ट पर सेना के पहले दस्ते को उतारा और यहीं से भारत की सक्रिय सैन्य कार्रवाई की शुरुआत हुई.
भारतीय सेना की रणनीतिक कार्रवाई
भारतीय सेना ने सबसे पहले श्रीनगर को सुरक्षित करने की दिशा में काम किया. दुर्गम और पहाड़ी इलाकों में, बर्फीली हवाओं और कठिन मौसम में, भारतीय सैनिकों ने न केवल कबायली लड़ाकों को रोका बल्कि उन्हें पीछे धकेलते हुए कई महत्वपूर्ण स्थानों पर फिर से नियंत्रण स्थापित किया.
बारामूला, उरी, तिथवाल, पुंछ जैसे क्षेत्रों में संघर्ष बेहद कड़ा था. भारतीय सेना को न केवल दुश्मन से लड़ना था, बल्कि स्थानीय लोगों की सुरक्षा, आपूर्ति लाइनों को बनाए रखना और दूरदराज के इलाकों में संपर्क स्थापित करना भी बड़ी चुनौती थी.
पाकिस्तानी सेना की सीधी भागीदारी
शुरुआत में पाकिस्तान इस युद्ध को केवल कबायली हमले के रूप में दर्शा रहा था, लेकिन जैसे-जैसे भारतीय सेना ने बढ़त बनानी शुरू की, पाकिस्तान ने अपनी नियमित सेना को भी मैदान में उतार दिया. अब यह लड़ाई दो देशों की पारंपरिक सेनाओं के बीच खुला युद्ध बन चुकी थी.
भारत ने अपनी कूटनीतिक ताकत का भी उपयोग किया और यह मामला संयुक्त राष्ट्र में उठाया. कश्मीर के प्रश्न को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामने लाकर भारत ने एक बड़ा कदम उठाया, हालांकि इसके दूरगामी परिणाम मिले-जुले रहे.
संघर्षविराम और युद्ध का परिणाम
लगभग 14 महीने तक चले इस संघर्ष के बाद संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता से 1 जनवरी 1949 को युद्धविराम (Ceasefire) लागू हुआ. इस युद्धविराम के तहत एक "लाइन ऑफ कंट्रोल" (तब की सीज़फायर लाइन) खींची गई, जो आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा के रूप में मौजूद है.
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