भारत-पाक तनाव के बीच चीन एक बार फिर अपनी दोहरी चालों को लेकर चर्चा में है. जब दक्षिण एशिया एक बार फिर संघर्ष के मुहाने पर खड़ा था, तब दुनिया उम्मीद कर रही थी कि एक वैश्विक शक्ति के रूप में चीन शांति का पक्ष लेगा. लेकिन, कूटनीतिक भाषा में लिपटी चीन की रणनीति कुछ और ही इशारा कर रही है. हाल ही में ग्वांचा (Guancha.cn) वेबसाइट पर प्रकाशित एक लेख में चीन के दो विद्वानों — सिन्हुआ यूनिवर्सिटी के माओ केजी और साउथ एशियन रिसर्च ग्रुप के चेन झाऊ — ने दावा किया है कि चीन की अक्साई चिन क्षेत्र में सैनिक तैनाती का मकसद भारत-पाक युद्ध को रोकना है.
चीन का 'डिप्लोमैटिक बैलेंस'
लेख के मुताबिक, चीन पहले पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा होकर भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता है ताकि वह सैन्य कार्रवाई से पीछे हटे. लेकिन, जैसे ही भारत सीमित स्तर की कार्रवाई करता है, चीन अपनी भाषा बदलकर शांति और संवाद की वकालत करने लगता है. यह चीन की वही रणनीति है, जिसे वह दशकों से सीमा विवादों और भू-राजनीतिक टकरावों में अपनाता आया है — 'डिप्लोमैटिक बैलेंस' के नाम पर हित साधना.
इस लेख का सबसे चौंकाने वाला दावा यह है कि 2020 से चीनी सैनिक पीओके के करीब तैनात हैं और लेखक इसे 'क्षेत्रीय स्थिरता की गारंटी' बताते हैं. लेकिन यह उपस्थिति चीन की सिर्फ एक सैन्य रणनीति नहीं, बल्कि भारत को अप्रत्यक्ष रूप से धमकी देने जैसा है. स्पष्ट है कि बीजिंग भारत को यह संकेत देना चाहता है कि यदि उसने पीओके को लेकर कोई सैन्य कदम उठाया, तो उसे चीन के हस्तक्षेप के लिए तैयार रहना होगा.
भारत को सतर्क और स्पष्ट होना पड़ेगा
चीन की इस नीति से यह सवाल उठता है — क्या किसी कमजोर देश को आतंकवाद का समर्थन करने की छूट सिर्फ इसलिए दी जा सकती है कि वह रणनीतिक दृष्टि से 'कमजोर' है? क्या आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संघर्ष में चीन की भूमिका सिर्फ एक दर्शक की होनी चाहिए या फिर यह उसकी जवाबदेही भी बनती है?
चीन की यह दोहरी नीति न केवल भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के लिए खतरा है, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में अस्थिरता का कारण बन सकती है. ऐसे में भारत को अपनी सुरक्षा नीति को लेकर और भी सतर्क और स्पष्ट होना पड़ेगा.
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