Budh Purnima Vrat Katha : यहां पढ़िए बुद्ध पूर्णिमा व्रत की कथा, मिलता है धन संपत्ति और संतान प्राप्ति का सुख

    Budh Purnima Vrat Katha : बुद्ध पूर्णिमा के दिन ही तीन ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुईं — गौतम बुद्ध का जन्म, ज्ञान की प्राप्ति, और महापरिनिर्वाण. यही वजह है कि यह दिन त्रिविध स्मरण का पर्व माना जाता है.

    Budh Purnima Vrat Katha
    Budh Purnima Vrat Katha | Photo: Freepik

    Budh Purnima Vrat Katha : द्वापर युग की बात है एक दिन यशोदा माता ने भगवान श्रीकृष्ण से निवेदन किया कि वे उन्हें ऐसा व्रत बताएं जो स्त्रियों को मृत्युलोक में विधवा होने के भय से मुक्ति दिलाए और मनुष्यों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला हो. इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि स्त्रियों को सौभाग्य और संतान सुख प्राप्त करने हेतु 32 पूर्णिमा व्रत करना चाहिए. यह व्रत भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने वाला, अचल सौभाग्य देने वाला और जीवन के कष्टों का नाश करने वाला है.

    यशोदा जी ने जिज्ञासा प्रकट की कि इस व्रत को मृत्युलोक में सबसे पहले किसने किया था. तब श्रीकृष्ण ने बताया कि प्राचीन काल में पृथ्वी पर ‘कातिका’ नाम की एक समृद्ध नगरी थी, जहां चंद्रहास नामक राजा राज्य करता था. वहीं एक धनेश्वर नाम का ब्राह्मण अपनी सुंदर और गुणी पत्नी रूपवती के साथ निवास करता था. उनके पास धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी, परंतु वे संतानहीन थे, और यही उनके जीवन का सबसे बड़ा दुख था.

    एक दिन एक महान योगी उस नगरी में आया और सभी घरों से भिक्षा लेने लगा, सिवाय धनेश्वर के. योगी कभी भी उनके घर से भिक्षा नहीं लेता था. एक दिन जब धनेश्वर ने यह देखा तो उसने कारण पूछा. योगी ने उत्तर दिया कि वह संतानहीन के घर का अन्न स्वीकार नहीं करता क्योंकि ऐसे अन्न को ‘पतित’ माना जाता है. यह सुनकर धनेश्वर अत्यंत दुखी हुआ और योगी से संतान प्राप्ति का उपाय पूछने लगा.

    योगी ने उसे देवी चंडी की उपासना का मार्ग बताया और कहा कि वह वन में जाकर व्रत एवं साधना करे. धनेश्वर ने यह बात अपनी पत्नी को बताई और वन में तप करने चला गया. सोलह दिन की कठोर साधना के बाद देवी चंडी ने स्वप्न में दर्शन देकर वरदान दिया कि उसे संतान की प्राप्ति होगी, लेकिन उसकी आयु केवल 16 वर्ष होगी. यदि वे दोनों पति-पत्नी 32 पूर्णिमाओं का विधिपूर्वक व्रत करें और आटे के दीपक बनाकर शिवजी का पूजन करें, तो वह संतान दीर्घायु होगा.

    प्रातःकाल धनेश्वर ने एक आम के वृक्ष पर सुंदर फल देखा, परंतु वह फल तोड़ नहीं पा रहा था. तब उसने श्री गणेश का स्मरण किया. गणेश जी की कृपा से वह फल प्राप्त कर घर लौट आया और अपनी पत्नी रूपवती को वह फल खाने को दिया. स्नान और शुद्ध आचरण के बाद फल ग्रहण करने से रूपवती गर्भवती हुई.

    समय पर उन्होंने एक सुंदर संतान को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने देवीदास रखा. बालक चंद्रमा की तरह उज्ज्वल, बुद्धिमान और सुशील था. उसकी माता ने देवी के आदेशानुसार 32 पूर्णिमा व्रत आरंभ कर दिए. जब वह 16 वर्ष का होने लगा, तब माता-पिता को उसकी आयु की चिंता सताने लगी. उन्होंने योजना बनाई कि देवीदास को काशी विद्या अध्ययन के लिए भेजा जाए. इसके लिए उन्होंने अपने भाई (देवीदास के मामा) को साथ भेजा और संतान को काशी भेज दिया, परंतु उन्होंने किसी को भी उसकी अल्पायु की बात नहीं बताई.

    एक दिन वे एक गांव में रुके, जहां एक ब्राह्मण की कन्या का विवाह होना था. कन्या ने देवीदास को देखकर उससे विवाह करने की इच्छा जताई. देवीदास ने अपनी अल्पायु की बात बताई, लेकिन कन्या ने कहा कि उसकी गति देवीदास के साथ ही बंधी है. विवाह के पश्चात देवीदास ने पत्नी को एक अंगूठी और रुमाल देकर एक पुष्प वाटिका बनाने को कहा और बताया कि जब वह मरेगा, तब वाटिका के फूल मुरझा जाएंगे और जब वह जीवित होगा तो वे फिर से हरे हो जाएंगे.

    काशी में पढ़ाई करते समय एक रात काल प्रेरित होकर एक सर्प देवीदास को डसने आया, परंतु 32 पूर्णिमा व्रत के प्रभाव से वह सफल नहीं हो पाया. फिर स्वयं काल आया और प्राण हरने का प्रयास किया, जिससे देवीदास बेहोश होकर गिर पड़ा. तभी भगवान शिव और माता पार्वती वहां प्रकट हुए. माता ने शिवजी से प्रार्थना की कि व्रत के प्रभाव और माता के पुण्य के कारण देवीदास को जीवनदान दिया जाए. शिवजी ने उसे पुनः जीवन प्रदान किया.

    उधर उसकी पत्नी पुष्प वाटिका को देखती रही. जब फूल नहीं मुरझाए तो वह आश्चर्य में पड़ गई. बाद में जब वाटिका फिर से हरी-भरी हो गई, तो वह समझ गई कि उसका पति जीवित है. जब देवीदास काशी से वापस लौटा, तो उसके ससुर भी उसे खोजने ही वाले थे. संयोगवश देवीदास अपने मामा और पत्नी के साथ वहां पहुंच गया. सभी ने उसे पहचान लिया और खुशी से उसका स्वागत किया. देवीदास अपने परिवार के साथ अपने नगर लौट गया. उसके आगमन की खबर सुनकर उसके माता-पिता अत्यंत हर्षित हुए और उन्होंने भव्य उत्सव मनाया.

    अंत में श्री कृष्ण यशोदा माता से कहते हैं कि धनेश्वर को संतान रत्न, उसकी दीर्घायु और कुल की रक्षा केवल 32 पूर्णिमा व्रत के प्रभाव से ही संभव हो पाई. जो भी मनुष्य श्रद्धा से इस व्रत को करता है, वह जन्म-जन्म के पापों से मुक्त होकर सुख, समृद्धि और सौभाग्य प्राप्त करता है.

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