‘पर्वतों से ऊंचा, समंदरों से गहरा’ — यही वो शब्द हैं जिनसे चीन और पाकिस्तान अक्सर अपनी तथाकथित अटूट दोस्ती का गुणगान करते हैं. लेकिन जब मैदान में हालात बिगड़ते हैं और असली समर्थन की ज़रूरत होती है, तब ये लफ्ज़ क्या वाकई कोई अहमियत रखते हैं? हालिया पहलगाम हमले के बाद भारत ने जिस तरह स्पष्ट संकेत दिए हैं कि जवाब सैन्य हो सकता है, उस स्थिति में चीन का रवैया पाकिस्तान के लिए एक बड़ा झटका साबित हो सकता है.
चीनी बयान में ‘बैलेंस’ का लबादा, समर्थन गायब
पहलगाम नरसंहार के बाद चीन ने एक सतर्क और संतुलित बयान जारी किया. इसमें न तो भारत की कार्रवाई का समर्थन था और न ही पाकिस्तान की सफाई का बचाव. विदेश मंत्री वांग यी ने केवल यह कहा कि “संघर्ष किसी के हित में नहीं है” और “संयम बरता जाए.” इससे आगे कोई ठोस स्टैंड नहीं लिया गया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी चीन ने पर्दे के पीछे पाकिस्तान की मदद करने की कोशिश जरूर की, लेकिन इसका परिणाम बेहद फीका बयान रहा जिसमें भारत की जांच या कार्रवाई को किसी तरह का समर्थन नहीं मिला.
कूटनीति में बदली दोस्ती की परिभाषा
अब यह साफ हो रहा है कि चीन की दोस्ती अब 'ऑल वेदर' नहीं, बल्कि 'ऑन डिप्लोमैटिक ड्यूटी' रह गई है. इसका मतलब है कि वह केवल उतना ही साथ देगा, जितना उसके राष्ट्रीय हितों को नुकसान न पहुंचे.
मुनीर की रणनीति और पाकिस्तान की गलतफहमियां
पाक आर्मी चीफ असीम मुनीर, जो ISI से जुड़े रहे हैं, कश्मीर को फिर से युद्ध का मैदान बनाकर फायदा उठाना चाहते थे. पर ये योजना उलटी पड़ती दिख रही है. पाकिस्तान घरेलू अस्थिरता, आर्थिक संकट और राजनीतिक अराजकता से जूझ रहा है. सेना से जनता की नाराजगी बढ़ती जा रही है और पूर्व प्रधानमंत्री जेल में हैं. ऐसे में मुनीर को शायद ये भ्रम रहा कि चीन फिर से ढाल बनकर खड़ा होगा.
चीन को अब पाकिस्तान में वो अहमियत नहीं
एक वक्त था जब पाकिस्तान, चीन के लिए तीन रणनीतिक कारणों से अहम था. अफगानिस्तान तक पहुँच का जरिया. CPEC (चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर). भारत को सैन्य मोर्चे पर उलझाए रखना. अब ये तीनों आधार डगमगा चुके हैं. अफगानिस्तान: बीजिंग अब सीधे तालिबान से संपर्क में है. CPEC: ग्वादर बंदरगाह अधूरा पड़ा है, विद्रोह, बकाया और विरोध इसकी रफ्तार थाम चुके हैं. सुरक्षा जोखिम: पाकिस्तान में इस्लामी उग्रवाद और चीनी वर्करों पर हमले ने बीजिंग को सतर्क कर दिया है.
इतिहास भी देता है चेतावनी
1971 के युद्ध के दौरान भी पाकिस्तान ने चीन से सैन्य मदद की उम्मीद की थी. लेकिन चीन ने सिर्फ बयानों तक खुद को सीमित रखा. नतीजा, पाकिस्तान टूटा और बांग्लादेश बना. यही इतिहास आज फिर खुद को दोहराने की स्थिति में है. चीन के लिए अब प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं. चीन की आंतरिक स्थिति भी चिंताजनक है. PLA (चीनी सेना) में बड़े पैमाने पर पर्ज चल रहे हैं. आर्थिक मंदी और निर्यात में गिरावट बढ़ रही है. शी जिनपिंग 2027 की पार्टी कांग्रेस से पहले किसी बड़े टकराव से बचना चाहेंगे. इसलिए, चीन की रणनीतिक दृष्टि अब दक्षिण एशिया से हटकर ताइवान, दक्षिण चीन सागर और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों पर केंद्रित हो चुकी है.
क्या पाकिस्तान फिर अकेला रह जाएगा?
भारत पहले ही सिंधु जल संधि को निलंबित कर चुका है. यह ऐतिहासिक कदम है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुरक्षा बलों को जवाबी कार्रवाई के लिए पूरी छूट दे दी है. ऐसे में अगर चीन सिर्फ बयानों तक सीमित रहता है, तो पाकिस्तान फिर उसी मोड़ पर खड़ा होगा, जहां 1971 में खड़ा था. अकेला और भ्रमित. चीन के लिए अब ‘भाईचारा’ नहीं, ‘राष्ट्रीय हित’ सबसे ऊपर हैं. और जब भी इन दोनों में टकराव होता है, बीजिंग का फैसला हमेशा साफ होता है. वो चुनेगा अपना फायदा.
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