अमेरिका की ओर से चीनी उत्पादों पर 245% तक टैरिफ लगाए जाने के बाद बीजिंग की नजर अब एक बार फिर भारत की ओर घूम गई है. वैश्विक व्यापार के इस उथल-पुथल में चीन अपनी कंपनियों को भारत में फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. लेकिन अब हालात पहले जैसे नहीं हैं. भारत सरकार चीन को यह स्पष्ट संकेत दे चुकी है कि अगर ड्रैगन यहां कारोबार करना चाहता है, तो उसे भारत की शर्तों पर ही खेलना होगा.
क्या है पूरा मामला?
सूत्रों की मानें तो भारत सरकार इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर में चीनी कंपनियों को जॉइंट वेंचर्स के जरिए निवेश करने की सीमित छूट देने की योजना बना रही है. योजना के तहत, चीनी कंपनियां किसी संयुक्त उद्यम में अधिकतम 10% इक्विटी ही रख सकेंगी — वो भी तब जब वे भारत को टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करने को तैयार होंगी. सरकार का यह रुख ऐसे वक्त सामने आया है जब चीन की कंपनियां हर हाल में भारत में फिर से पैर जमाने को बेताब हैं, क्योंकि अमेरिका के साथ छिड़े टैरिफ युद्ध ने उनके मुनाफे को सीधा प्रभावित किया है.
सरकार का फोकस अब पूरी तरह ‘मेक इन इंडिया’ को लेकर है. ऐसे में सरकार उन्हीं विदेशी कंपनियों को प्राथमिकता देना चाहती है जो भारत में स्थानीय मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देंगी. यही वजह है कि भारत किसी भी हालत में वियतनाम जैसी स्थिति से बचना चाहता है, जहां चीन का वर्चस्व इलेक्ट्रॉनिक्स इकोसिस्टम पर पूरी तरह हावी है.
भारत इस समय बेहद सतर्कता के साथ चीनी निवेश पर नजर रखे हुए है. खासतौर से ड्रिलिंग मशीन, सोलर पैनल उपकरण और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में चीन की सप्लाई चेन को लेकर सरकार की चिंता बरकरार है. यही वजह है कि निवेश की हर फाइल को केस-दर-केस आधार पर खंगाला जा रहा है.
एप्पल की भूमिका भी महत्वपूर्ण
वहीं दूसरी ओर, अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों द्वारा चीन से अपने प्रोडक्शन यूनिट भारत लाने को लेकर संभावनाएं खुली हैं. सरकार संकेत दे चुकी है कि यदि ऐसी कंपनियां अपने चीनी सप्लायर्स के साथ आती हैं और भारत में मैन्युफैक्चरिंग का आधार बनाती हैं, तो कुछ अपवाद स्वरूप उन्हें 49% तक हिस्सेदारी की छूट दी जा सकती है.
इस पूरे घटनाक्रम में एप्पल की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. पहले उम्मीद की जा रही थी कि एप्पल अपने कुछ चीनी सप्लायर्स को भारत में एडजस्ट करेगा, लेकिन इसके बजाय कंपनी ने ताइवान और जापान की कंपनियों के साथ साझेदारी करते हुए भारत में एक स्वतंत्र मैन्युफैक्चरिंग नेटवर्क खड़ा करना शुरू कर दिया. टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स इसका बड़ा उदाहरण है, जिसने अब iPhone एनक्लोजर भारत में ही बनाना शुरू कर दिया है. धीरे-धीरे, iPad को छोड़कर बाकी सभी Apple डिवाइसेज़ के कंपोनेंट्स भारत में ही तैयार हो रहे हैं और विदेशों में निर्यात किए जा रहे हैं.
इस बीच भारत-अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार समझौते की चर्चाएं भी जोरों पर हैं. ऐसे में केंद्र सरकार चाहती है कि भारतीय कंपनियां न केवल अमेरिकी कंपनियों को अपने यहां आकर्षित करें, बल्कि खुद भी अमेरिका के बाजार में आक्रामक तरीके से प्रवेश करे. फिलहाल इतना तय है कि वैश्विक सप्लाई चेन के नए अध्याय में भारत खुद को एक निर्णायक खिलाड़ी की भूमिका में देख रहा है. चीन के लिए अब भारत में निवेश उतना आसान नहीं रहा — और अगर उसे यहां रहना है, तो उसे टेक्नोलॉजी के बदले में भरोसा देना होगा.
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