अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में 20 अगस्त को आयोजित त्रिपक्षीय बैठक में अफगान तालिबान, पाकिस्तान और चीन के विदेश मंत्रियों के बीच रिश्तों को मजबूत करने और आर्थिक सहयोग बढ़ाने पर जोर दिया गया. लेकिन यह बैठक जितनी सकारात्मक उम्मीदों के साथ शुरू हुई थी, उतनी ही कड़वाहट के साथ समाप्त होती दिखी. खासकर पाकिस्तान के लिए यह बैठक असहज साबित हुई, जहां उसे तालिबान से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिल पाया.
बैठक के दौरान पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में छिपे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के खिलाफ कार्रवाई की मांग उठाई. हालांकि, तालिबान ने इस मांग को ठुकराते हुए साफ शब्दों में कह दिया कि TTP उनका आंतरिक मुद्दा नहीं है और इस्लामाबाद को खुद ही इससे निपटना चाहिए. तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी ने पाकिस्तान को दो टूक कह दिया कि काबुल इस मामले में कोई भूमिका नहीं निभाएगा.
बीएलए पर बनी सहमति, चीन का दबाव दिखा
वहीं दूसरी ओर, जब बात बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (BLA) की हुई, तो तालिबान ने सहयोग का आश्वासन दिया. दरअसल, BLA पाकिस्तान और चीन दोनों के लिए एक साझा खतरा है. इस संगठन ने बीते समय में सीपैक प्रोजेक्ट (CPEC) से जुड़े कई चीनी कामगारों और परियोजनाओं को निशाना बनाया है. ऐसे में चीन ने भी तालिबान पर बीएलए के खिलाफ कार्रवाई का दबाव डाला, जिसे काबुल ने गंभीरता से लिया.
चीन का रणनीतिक एजेंडा साफ
चीन की इस बैठक में प्राथमिकता सिर्फ सुरक्षा तक सीमित नहीं रही. बीजिंग ने बैठक में सीपैक के विस्तार और अफगानिस्तान के भीतर खनिज संसाधनों की खोज में अपनी दिलचस्पी भी जताई. साथ ही बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत अफगानिस्तान को जोड़ने की मंशा भी साफ कर दी.चीन का उद्देश्य अफगानिस्तान को अपने आर्थिक और रणनीतिक दायरे में लाना है. सूत्रों के मुताबिक, बीजिंग ने इस्लामाबाद और काबुल के बीच बढ़ते तनाव को शांत करने के लिए निवेश को लुभावने प्रस्ताव के तौर पर पेश किया.
पाकिस्तान की कमजोर स्थिति उजागर
जहां चीन ने अपने आर्थिक हितों की रक्षा करते हुए तालिबान और पाकिस्तान के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की, वहीं पाकिस्तान की स्थिति पूरे संवाद में कमजोर और उपेक्षित नजर आई. न तो उसे टीटीपी पर कोई समर्थन मिला और न ही उसकी सुरक्षा चिंताओं को प्राथमिकता दी गई.
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