Iran US Relations: मध्य पूर्व की राजनीति एक बार फिर तनाव के नए दौर में प्रवेश करती दिख रही है. लंबे समय से उतार-चढ़ाव भरे रिश्तों से जूझ रहे ईरान और अमेरिका के बीच भरोसे की डोर फिर कमजोर पड़ती नजर आ रही है. ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खामेनेई ने सोमवार को दिए एक बयान में स्पष्ट कहा कि जब तक अमेरिका इज़रायल का समर्थन बंद नहीं करता, तब तक दोनों देशों के बीच दोस्ती की कोई संभावना नहीं है. खामेनेई का यह बयान ऐसे समय में आया है जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक ओर तेहरान पर दबाव बढ़ा रहे हैं और दूसरी ओर “सहयोग” का प्रस्ताव भी दे रहे हैं.
ईरान लंबे समय से कहता आया है कि उसे अमेरिका से कोई वैर नहीं है, लेकिन वह बराबरी की शर्तों पर रिश्ते चाहता है. तेहरान के लिए यह सिर्फ कूटनीतिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सम्मान का प्रश्न है. वहीं, अमेरिका की नीति अब तक ईरान को मिडिल ईस्ट की “टेस्टिंग लैब” के रूप में देखने की रही है, जहां वह अपने भू-राजनीतिक प्रयोग करता रहा है. यही वजह है कि दोनों देशों के विचार शायद ही कभी एक दिशा में चले हों.
ईरान अब खुलकर रूस और चीन जैसे देशों के करीब आ रहा है और क्षेत्रीय गठबंधन को नया रूप देने की कोशिश कर रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि यह रुख अमेरिका के खिलाफ एक रणनीतिक संतुलन बनाने की दिशा में कदम है.
“अमेरिका-इज़रायल की दोस्ती ही असली बाधा”
तेहरान में एक धार्मिक सभा को संबोधित करते हुए आयतुल्लाह खामेनेई ने कहा, “जब तक अमेरिका इज़रायल का समर्थन करता रहेगा, मध्य पूर्व में सैन्य हस्तक्षेप करता रहेगा और अपने ठिकाने बनाए रखेगा, तब तक ईरान और अमेरिका के बीच कोई दोस्ती संभव नहीं है.”
खामेनेई ने यह भी कहा कि ईरान को अब आधे-अधूरे भरोसे पर कोई समझौता मंजूर नहीं. उनका यह बयान उस उम्मीद पर पानी फेरता दिखा, जिसमें माना जा रहा था कि वॉशिंगटन और तेहरान के बीच बातचीत के नए दौर की शुरुआत हो सकती है.
ट्रंप का दोहरा रवैया
अक्टूबर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि अमेरिका “ईरान के साथ सहयोग और दोस्ती के लिए तैयार है, जब तेहरान इसके लिए इच्छुक होगा.” उन्होंने कहा था, “हमारा हाथ दोस्ती के लिए खुला है.”
लेकिन ईरान की नजर में यह केवल राजनीतिक बयानबाजी है. एक ओर वॉशिंगटन ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लागू किए हुए है, दूसरी ओर “मित्रता” की बात कर रहा है, यह विरोधाभास तेहरान को खटक रहा है. खामेनेई का बयान इसी असंतोष का परिणाम है.
परमाणु समझौता फिर अधर में
दोनों देशों के बीच परमाणु वार्ता (Nuclear Talks) पिछले कुछ वर्षों में पांच दौर से गुजर चुकी है, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया. बातचीत की मुख्य अड़चन यूरेनियम संवर्धन (Uranium Enrichment) का मुद्दा है. अमेरिका और उसके सहयोगी देश चाहते हैं कि ईरान अपने यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम को पूरी तरह बंद करे, ताकि परमाणु हथियार विकसित करने की संभावना खत्म हो.
परंतु ईरान का रुख अलग है. तेहरान का कहना है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों, जैसे ऊर्जा उत्पादन और वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए है. ईरान इसे अपने संप्रभु अधिकारों का हिस्सा मानता है और इस पर किसी बाहरी दबाव को स्वीकार नहीं करता. इसलिए अब मामला सिर्फ तकनीकी नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संप्रभुता का भी बन चुका है.
ईरान के नजरिए से ‘सम्मान’ सर्वोपरि
ईरान के लिए अमेरिका के साथ संबंध केवल व्यापार या सुरक्षा का प्रश्न नहीं है, यह सम्मान की राजनीति का मामला है. तेहरान का तर्क है कि अगर अमेरिका सचमुच रिश्ते सुधारना चाहता है, तो उसे पहले यह साबित करना होगा कि वह ईरान को बराबरी का साझेदार मानता है, न कि एक नियंत्रित करने योग्य देश.
ईरानियों की ऐतिहासिक स्मृति में अब भी 1953 का वह तख्तापलट दर्ज है, जब अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई ईरानी सरकार को गिरा दिया था. इसीलिए, हर बार जब वॉशिंगटन दोस्ती की बात करता है, तो तेहरान को उस “अविश्वास की विरासत” की याद ताजा हो जाती है.
ट्रंप के सामने जटिल समीकरण
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के लिए ईरान नीति अब एक राजनीतिक दुविधा बन चुकी है. एक तरफ, वे घरेलू राजनीति में उन समर्थकों को खुश रखना चाहते हैं जो ईरान के खिलाफ कठोर रुख की मांग करते हैं. दूसरी तरफ, अमेरिकी अर्थव्यवस्था ऊर्जा संकट और महंगाई से जूझ रही है, और ऐसे में मिडिल ईस्ट से तेल आपूर्ति सुनिश्चित करना ट्रंप प्रशासन की जरूरत है.
लेकिन खामेनेई की शर्त, यानी “अमेरिका को इज़रायल का साथ छोड़ना होगा”, अमेरिकी विदेश नीति की जड़ों को चुनौती देती है. इज़रायल दशकों से अमेरिका का सबसे करीबी सहयोगी रहा है. इसलिए इस शर्त को मानना ट्रंप के लिए लगभग नामुमकिन है.
तेहरान-तेल अवीव समीकरण में उलझी वॉशिंगटन की रणनीति
खामेनेई के बयान से यह साफ झलकता है कि ईरान अब अमेरिका की “डंडे और गाजर” वाली नीति से थक चुका है. ट्रंप प्रशासन एक ओर आर्थिक प्रतिबंधों का दबाव बनाए रखना चाहता है, वहीं दूसरी ओर कूटनीतिक लचीलापन दिखाकर वार्ता की गुंजाइश छोड़ना चाहता है. ईरान इसे “दोहरी चाल” मानता है. उसका मानना है कि अमेरिका की “दोस्ती” का हाथ दरअसल नियंत्रण की कोशिश है, न कि आपसी सम्मान की पहल.
रूस और चीन बने ईरान के नए रणनीतिक स्तंभ
जैसे-जैसे वॉशिंगटन-तेहरान के रिश्ते बिगड़ते जा रहे हैं, ईरान अब रूस और चीन जैसे देशों के साथ अपने रिश्ते मजबूत कर रहा है. रूस के साथ वह ऊर्जा, हथियार और सुरक्षा के क्षेत्र में साझेदारी बढ़ा रहा है. वहीं चीन के साथ उसने 25 साल का दीर्घकालिक व्यापार समझौता किया है, जिसके तहत अरबों डॉलर का निवेश और तेल आपूर्ति सुनिश्चित की गई है.
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