कृष्ण जन्मभूमि विवाद मामले में हिंदू पक्ष की जीत, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मस्जिद समिति की याचिका खारिज की

    हाईकोर्ट ने शाही ईदगाह (मथुरा) मस्जिद समिति की ओर से हिंदू उपासकों और देवता को लेकर चुनौती देने वाले याचिका खारिज करते हुए मामले में हिंदू उपासकों और देवता के मुकदमे विचारणीय बताया है.

    कृष्ण जन्मभूमि विवाद मामले में हिंदू पक्ष की जीत, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मस्जिद समिति की याचिका खारिज की
    श्री कृष्ण जन्मभूमि और मस्जिद की तस्वीर | Photo- Social Media

    नई दिल्ली : कृष्ण जन्मभूमि विवाद पर चल रही सुनवाई में हिंदू पक्ष की जीत हुई है, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मस्जिद समिति की ओर से दी गई चुनौती को खारिज कर दिया है.

    मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद के संबंध में उच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले में, आज शाही ईदगाह मस्जिद की याचिका को आदेश 7 नियम 11 सीपीसी के तहत खारिज कर दिया. इस याचिका में देवता और हिंदू उपासकों द्वारा दायर 18 मुकदमों की विचार किए जाने को को चुनौती दी गई थी.

    इस फैसले के साथ, न्यायमूर्ति मयंक कुमार जैन की पीठ ने सभी 18 मुकदमों को विचारणीय पाया, जिससे उनकी योग्यता के आधार पर उनकी सुनवाई का रास्ता साफ हो गया.

    एकल जज वाली पीठ ने 6 जून को फैसला सुरक्षित रखा लिया था

    यह ध्यान देने योग्य है कि एकल न्यायाधीश ने 6 जून को शाही ईदगाह मस्जिद समिति की याचिका पर सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, जिसमें मुकदमों की विचारणीयता पर सवाल उठाया गया था. खुली अदालत में फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने फैसले के मुख्य अंश को पढ़ते हुए कहा कि हिंदू उपासकों और देवता के वादों पर सीमा अधिनियम या पूजा स्थल अधिनियम आदि के तहत रोक नहीं है.

    इसके साथ ही न्यायालय ने प्रबंध समिति ट्रस्ट शाही मस्जिद ईदगाह (मथुरा) द्वारा दी गई प्राथमिक दलील को खारिज कर दिया कि उच्च न्यायालय में लंबित वादों पर पूजा स्थल अधिनियम 1991, सीमा अधिनियम 1963 और विशिष्ट राहत अधिनियम 1963 के तहत रोक है.

    हिंदू पक्षकारों की तरफ से ये दी गई दलील

    वहीं, हिंदू पक्षकारों की तरफ से दी गई दलील कि शाही ईदगाह के नाम की कोई भी संपत्ति सरकारी अभिलेखों में नहीं है और उस पर अवैध कब्जा है. उन्होंने यह भी दलील दी थी कि अगर संपत्ति वक्फ संपत्ति है तो वक्फ बोर्ड को बताना चाहिए कि विवादित संपत्ति किसने दान की है.

    उन्होंने यह भी दलील दी कि इस मामले में पूजा अधिनियम, सीमा अधिनियम और वक्फ अधिनियम लागू नहीं होते. मूल वाद संख्या 6, 9, 16 और 18 (जिसमें शाही ईदगाह को हटाने की मांग की गई है) की स्थिरता को चुनौती देते हुए मस्जिद समिति ने तर्क दिया था कि पक्षकार ने अपने वाद में 1968 के समझौते को स्वीकार किया है और इस तथ्य को भी स्वीकार किया है कि भूमि (जहां ईदगाह बनी है) का कब्जा मस्जिद प्रबंधन के नियंत्रण में है और इसलिए, यह वाद सीमा अधिनियम और पूजा स्थल अधिनियम द्वारा वर्जित होगा क्योंकि वादों में यह भी स्वीकार किया गया है कि विचाराधीन मस्जिद का निर्माण 1669-70 में हुआ था.

    संदर्भ के मुताबिक, महत्वपूर्ण रूप से, मस्जिद समिति ने यह भी तर्क दिया था कि स्थायी निषेधाज्ञा की प्रार्थना केवल उस व्यक्ति को दी जा सकती है जो वाद की तिथि पर संपत्ति के वास्तविक कब्जे में हो. चूंकि पक्षकारों के पास मस्जिद नहीं है, इसलिए वे स्थायी निषेधाज्ञा के लिए प्रार्थना नहीं कर सकते.

    शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी ने दिया मजबूत तर्क

    शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी ने सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के तहत आदेश VII नियम 11 (डी) (वादा खारिज करने के लिए) के तहत दायर अपने आवेदन में दृढ़ता से तर्क दिया था कि उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित वादों में यह स्वीकार किया गया है कि 1968 के बाद भी मस्जिद अस्तित्व में थी.

    दूसरी ओर, पक्षकारों ने तर्क दिया था कि किसी भी संपत्ति पर अतिक्रमण करना, उसकी प्रकृति बदलना और बिना स्वामित्व के उसे वक्फ संपत्ति में बदलने के चलन को अनुमति नहीं दी जा सकती. उन्होंने यह भी तर्क दिया कि इस मामले में वक्फ अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होंगे क्योंकि विवादित संपत्ति वक्फ संपत्ति नहीं है.

    यह भी तर्क दिया गया कि प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम 1958 के प्रावधान विवादित संपत्ति के पूरे हिस्से पर लागू होते हैं. इसकी अधिसूचना 26 फरवरी 1920 को जारी की गई थी और अब इस संपत्ति पर वक्फ के प्रावधान लागू नहीं होंगे.

    हिंदू पक्षकारों की तरफ से ये हुए शामिल

    हिंदू पक्षकारों का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता हरि शंकर जैन, विष्णु शंकर जैन, रीना एन सिंह, महेंद्र प्रताप सिंह, अजय कुमार सिंह, हरे राम त्रिपाठी, प्रभाष पांडे, विनय शर्मा, गौरव कुमार, राधेश्याम यादव, सौरभ तिवारी, सिद्धार्थ श्रीवास्तव, आशीष कुमार श्रीवास्तव, अश्विनी कुमार श्रीवास्तव और आशुतोष पांडे (व्यक्तिगत रूप से) ने किया.

    पूरा मामला औरंगजेब के समय की शाही ईदगाह मस्जिद से जुड़ा है

    पूरा विवाद मथुरा में मुगल बादशाह औरंगजेब के दौर की शाही ईदगाह मस्जिद से जुड़ा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे भगवान कृष्ण के जन्मस्थान पर एक मंदिर को ध्वस्त करके बनाया गया था.

    1968 में, श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान, मंदिर प्रबंधन प्राधिकरण और ट्रस्ट शाही मस्जिद ईदगाह के बीच एक 'समझौता' हुआ था, जिसके तहत दोनों पूजा स्थलों को एक साथ संचालित करने की अनुमति दी गई थी. हालांकि, कृष्ण जन्मभूमि के संबंध में अदालतों में विभिन्न प्रकार की राहत की मांग करने वाले पक्षों ने अब इस समझौते की वैधता पर संदेह जताया है.

    पक्षकारों का तर्क है कि समझौता धोखाधड़ी से और कानून की दृष्टि से अमान्य था. उनमें से कई लोग विवादित स्थल पर पूजा करने का अधिकार होने का दावा करते हैं और शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग करते हैं.

    पिछले साल मई में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मथुरा न्यायालय में लंबित सभी मुकदमों को अपने पास स्थानांतरित कर लिया था, जिसमें कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद से संबंधित विभिन्न राहतों के लिए प्रार्थना की गई थी और भगवान श्रीकृष्ण विराजमान और सात अन्य द्वारा दायर स्थानांतरण आवेदन को स्वीकार कर लिया था.

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