तुर्की को नहीं मिलेगा यूरोफाइटर टाइफून जेट, खलीफा एर्दोगन का सारा प्लान चौपट; जानिए कैसे लगा झटका

    बर्लिन ने तुर्की को अत्याधुनिक यूरोफाइटर टाइफून लड़ाकू जेट बेचने से फिलहाल इनकार कर दिया है.

    Turkey Eurofighter Typhoon jet Khalifa Erdogan
    प्रतीकात्मक तस्वीर | Photo: Freepik

    बर्लिन ः जब दो नाटो सहयोगी देशों के बीच रक्षा सौदों में राजनीति दखल देने लगे, तो सिर्फ एक डील नहीं, बल्कि पूरी रणनीतिक तस्वीर बदल जाती है. ताजा मामला है जर्मनी और तुर्की का — जहां बर्लिन ने तुर्की को अत्याधुनिक यूरोफाइटर टाइफून लड़ाकू जेट बेचने से फिलहाल इनकार कर दिया है.

    इस फैसले की वजह सिर्फ तकनीकी या आर्थिक नहीं, बल्कि पूरी तरह राजनीतिक है. तुर्की के प्रमुख विपक्षी नेता एकरेम इमामोग्लू की गिरफ्तारी ने जर्मन सरकार को झकझोर दिया, और उन्होंने इस डील को हरी झंडी दिखाने से इनकार कर दिया.

    राजनीति बनाम रक्षा: एक टकराव की शुरुआत

    जर्मनी की सोशल डेमोक्रेट्स और ग्रीन्स की गठबंधन सरकार ने साफ संकेत दिया है कि वे मानवाधिकार और लोकतंत्र के मुद्दों को किसी भी सैन्य समझौते से ऊपर रखते हैं. और तुर्की में विपक्ष के दमन पर उनकी चुप्पी टूट चुकी है.

    इस फैसले के कई स्तरों पर असर दिख सकते हैं —

    • नाटो के अंदरूनी समीकरण बदल सकते हैं.
    • यूरोफाइटर कंसोर्टियम (जिसमें ब्रिटेन, इटली, स्पेन और जर्मनी शामिल हैं) में मतभेद गहराने की आशंका है.
    • और सबसे अहम — तुर्की की वायुसेना को मॉडर्न बनाने की रणनीति पर बड़ा असर पड़ेगा.

    तुर्की की मुश्किलें और सीमित विकल्प

    तुर्की के पास अब भी 200 से ज्यादा F-16 फाइटर जेट्स हैं, लेकिन वे उम्रदराज हो चुके हैं. यूरोफाइटर उनके लिए एक जरूरी अपग्रेड हो सकता था. अब जब जर्मनी ने कदम पीछे खींच लिया है, तो तुर्की की सरकार के पास कुछ विकल्प ही बचे हैं:

    • रूस या चीन से लड़ाकू विमान खरीदना — लेकिन ये कदम नाटो में उसकी स्थिति को असहज कर सकता है.
    • स्वदेशी TF-X फाइटर प्रोग्राम पर तेज़ी से काम करना — जो फिलहाल विकास के शुरुआती चरण में है.

    ब्रिटेन और स्पेन की नाराज़गी

    इस डील को लेकर सिर्फ तुर्की ही नहीं, यूरोप के अन्य देश भी असहज हैं. ब्रिटेन और स्पेन इस सौदे को होते देखना चाहते थे क्योंकि इससे उन्हें आर्थिक और रणनीतिक फायदा मिलने वाला था. लेकिन जर्मनी की "राजनीति-प्रथम" नीति ने उनके मंसूबों पर भी पानी फेर दिया है.

    आगे क्या?

    क्या जर्मनी का ये स्टैंड एक नया उदाहरण बनेगा कि लोकतंत्र और मानवाधिकारों को अब हथियारों की डिप्लोमेसी में भी प्राथमिकता दी जा रही है? या फिर यह फैसला यूरोपीय रक्षा सहयोग को नुकसान पहुंचाएगा? जो भी हो, इतना तय है — यह एक डिफेंस डील से कहीं ज़्यादा बड़ी कहानी है.

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