रेयर अर्थ मिनरल्स क्या है, जिसके लिए दुनियाभर के नेताओं में मची होड़; ट्रंप से लेकर जिनपिंग तक बेचैन

    ये धातुएं — लिथियम, कोबाल्ट, टेरबियम, नियोडिमियम और य्ट्रियम जैसी — आधुनिक तकनीकी ढांचे की रीढ़ बन चुकी हैं.

    Rare Earth Minerals competition among world leaders Trump to Jinping
    प्रतीकात्मक तस्वीर | Photo: Freepik

    21वीं सदी की भू-राजनीति अब उस दिशा में बढ़ रही है, जहां सत्ता, शक्ति और नियंत्रण के केंद्र बदल चुके हैं. बीते सौ वर्षों में अगर तेल ने देशों को अमीर और ताकतवर बनाया था, तो आज वही भूमिका अब रेयर अर्थ मिनरल्स निभा रहे हैं. वो खनिज, जिनका नाम कभी भूगोल की किताबों में छिटपुट ज़िक्र तक सीमित था, अब वैश्विक राजनीति की मुख्यधारा में आ चुके हैं.

    ये धातुएं — लिथियम, कोबाल्ट, टेरबियम, नियोडिमियम और य्ट्रियम जैसी — आधुनिक तकनीकी ढांचे की रीढ़ बन चुकी हैं. चाहे वह स्मार्टफोन हो या इलेक्ट्रिक कारें, फाइटर जेट हो या उपग्रह, हर जगह इनकी मौजूदगी अनिवार्य है. आज क्लीन एनर्जी से लेकर रक्षा प्रणाली तक, दुनिया की तमाम बड़ी ताकतें इन्हीं खनिजों की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगी हैं.

    क्या होते हैं रेयर अर्थ मिनरल्स और क्यों हैं ये इतने जरूरी?

    रेयर अर्थ मिनरल्स दरअसल 17 तरह की विशिष्ट धातुएं होती हैं, जो अपने चुंबकीय, प्रकाशीय और इलेक्ट्रॉनिक गुणों के लिए जानी जाती हैं. ये पृथ्वी पर बहुत अधिक मात्रा में नहीं मिलतीं और जब मिलती हैं तो अक्सर दूसरी धातुओं या रेडियोधर्मी तत्वों के साथ मिली होती हैं, जिससे इनका शुद्ध रूप निकालना बेहद जटिल और महंगा होता है.

    इनकी प्रोसेसिंग में खतरनाक रसायनों, रेडियोएक्टिव कचरे और भारी मात्रा में ऊर्जा की ज़रूरत होती है, जो पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा बनता है. बावजूद इसके, इन धातुओं के बिना आधुनिक तकनीक की कल्पना अधूरी है — एलईडी बल्ब, मोबाइल, विंड टर्बाइन, बैटरी, सैन्य उपकरण और ग्रीन एनर्जी के तमाम प्रोजेक्ट्स इन्हीं पर निर्भर हैं.

    इतिहास की गहराई से निकली वैश्विक महत्व की धातुएं

    इन दुर्लभ धातुओं की खोज कोई हालिया घटना नहीं है. इनकी शुरुआत 1788 में स्वीडन के यटरबी गांव से हुई थी, जहां एक अजीब सी चट्टान ने वैज्ञानिकों का ध्यान खींचा. इसी चट्टान से 'य्ट्रियम', 'टरबियम', 'अर्बियम' जैसी कई धातुएं खोजी गईं. समय के साथ इनकी औद्योगिक और तकनीकी जरूरतें बढ़ती गईं, और अब ये वैश्विक प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बन चुकी हैं.

    वैश्विक खनिज सत्ता: कहां से आते हैं ये तत्व?

    दुनिया में रेयर अर्थ मिनरल्स का अनुमानित भंडार करीब 130 मिलियन टन है. इनमें सबसे बड़ा हिस्सा चीन के पास है — लगभग 44 मिलियन टन. इसके बाद वियतनाम, ब्राज़ील, रूस और भारत भी इस सूची में शामिल हैं. भारत के पास करीब 5% वैश्विक भंडार है, लेकिन प्रोसेसिंग के मामले में हमारी पकड़ अब भी कमजोर है.

    चीन इस क्षेत्र में न केवल सबसे बड़ा उत्पादक है, बल्कि उसने पूरी दुनिया की सप्लाई चेन पर गहरी पकड़ बना ली है. 1993 में जहां उसका हिस्सा 38% था, वहीं 2011 तक ये 97% तक पहुंच गया था. इसका मतलब ये हुआ कि पूरी दुनिया उसकी ओर देखती है — न केवल खनिजों की आपूर्ति के लिए, बल्कि उनकी प्रोसेसिंग और फिनिशिंग के लिए भी.

    क्यों बन रहे हैं ये खनिज अगली जंग की वजह?

    रेयर अर्थ मिनरल्स अब किसी देश की तकनीकी स्वतंत्रता का आधार बन चुके हैं. जैसे बीसवीं सदी में तेल के बिना ऊर्जा और युद्ध दोनों अधूरे माने जाते थे, वैसे ही अब इन धातुओं के बिना न रक्षा प्रणाली टिक सकती है, न टेक्नोलॉजी की तरक्की संभव है.

    डोनाल्ड ट्रंप का एक प्रस्ताव इसका उदाहरण है, जब उन्होंने यूक्रेन को समर्थन देने के बदले वहां के रेयर अर्थ भंडारों तक विशेष पहुंच की मांग की थी. ये साफ संकेत है कि अब देशों के बीच प्रतिस्पर्धा न केवल हथियारों या कूटनीति को लेकर होगी, बल्कि धरती के नीचे छिपे संसाधनों पर नियंत्रण के लिए भी.

    चीन की इस पर मजबूत पकड़ ने बाकी देशों को सतर्क कर दिया है. अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान और भारत अब नई आपूर्ति शृंखलाएं बनाने की कोशिश कर रहे हैं — अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अमेरिका में निवेश करके.

    भारत कहां खड़ा है इस वैश्विक दौड़ में?

    भारत के पास लगभग 6.9 मिलियन टन रेयर अर्थ मिनरल्स का भंडार है, लेकिन यहां प्रोसेसिंग और एक्सप्लोरेशन की गति धीमी रही है. सरकार ने अब इस दिशा में नए कदम उठाने शुरू किए हैं — पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप, नीति सुधार और विदेशी निवेश के ज़रिए. लेकिन असली चुनौती चीन जैसे दिग्गज से प्रतिस्पर्धा की है, जिसने इस क्षेत्र में तीन दशक पहले ही बढ़त बना ली थी.

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