हाल के दिनों में पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हुए रक्षा समझौते ने अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है. खासकर तब, जब यह खबर सामने आई कि पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने सार्वजनिक रूप से कहा, "जरूरत पड़ी तो पाकिस्तान सऊदी अरब को अपनी परमाणु क्षमता उपलब्ध कराएगा." हालांकि उन्होंने बाद में इस बयान से पलटी मार ली, लेकिन तब तक यह बयान अपने पीछे ढेर सारे सवाल छोड़ गया.
विशेषज्ञों का मानना है कि यह समझौता सिर्फ एक पारंपरिक रक्षा सहयोग नहीं, बल्कि भविष्य की भू-राजनीतिक दिशा का संकेत भी हो सकता है, जिसमें परमाणु हथियारों की भूमिका को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता.
दशकों पुराना सहयोग, अब औपचारिक रूप में
पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच रक्षा सहयोग कोई नया नहीं है. 1980 के दशक से ही पाकिस्तानी सैनिक सऊदी भूमि पर तैनात रहे हैं. लेकिन अब इस गठजोड़ को औपचारिक रूप दे दिया गया है, जो इसे कहीं ज्यादा गंभीर और रणनीतिक बना देता है. ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन के विशेषज्ञ जोशुआ व्हाइट ने इसे "ऐतिहासिक और अप्रत्याशित" करार दिया है.
सुरक्षा विश्लेषकों का कहना है कि यह समझौता दरअसल अमेरिका पर सऊदी अरब के भरोसे में आई गिरावट का नतीजा है. कतर पर इजरायली हमले के बाद सऊदी को लगने लगा कि अगर उस पर हमला हुआ तो अमेरिका की 'सुरक्षा गारंटी' सिर्फ कागजों तक सीमित रह सकती है.
क्या पाकिस्तान सऊदी को परमाणु हथियार देगा?
यह सबसे संवेदनशील और विवादित सवाल बन चुका है. पाकिस्तान के पास अनुमानतः 160 से 170 के बीच परमाणु हथियार हैं, लेकिन अब यह आशंका उभर रही है कि क्या इनका इस्तेमाल पाकिस्तान किसी तीसरे देश की सुरक्षा में करेगा?
कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुए समझौते में "गैर-पारंपरिक रक्षा उपायों" का भी जिक्र है, जो कि परमाणु क्षमता की तरफ संकेत करता है. एक रिटायर्ड सऊदी जनरल ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि यह बात "लिखित और स्पष्ट" रूप से दर्ज है कि समझौते में पाकिस्तानी परमाणु हथियार शामिल हो सकते हैं.
सऊदी विश्लेषक अली शिहाबी, जो कि शाही परिवार के करीबी माने जाते हैं, ने भी इस बात को बल दिया कि परमाणु आयाम इस डील का अभिन्न हिस्सा है. हालांकि पाकिस्तान की ओर से न तो इस बात की पुष्टि की गई है और न ही इसका खंडन किया गया है.
पाकिस्तान की परमाणु नीति: बदल रहा फोकस?
अब तक पाकिस्तान की परमाणु नीति पूरी तरह भारत-केंद्रित रही है. लेकिन इस नए समझौते से सवाल उठने लगे हैं कि क्या अब पाकिस्तान अपनी रणनीति का दायरा भारत से आगे बढ़ाकर खाड़ी क्षेत्र तक बढ़ा रहा है?
लाहौर विश्वविद्यालय के सुरक्षा विशेषज्ञ सैयद अली जाफरी ने कहा, "पाकिस्तान के पास कोई परमाणु छतरी नहीं है और न ही ऐसा कोई आधिकारिक सबूत है कि वह सऊदी को इस तरह की सुरक्षा देगा." हालांकि कई पश्चिमी विशेषज्ञों का मानना है कि "रणनीतिक अस्पष्टता" (strategic ambiguity) का इस्तेमाल करके दोनों देश जानबूझकर इस विषय में अस्पष्ट बयान दे रहे हैं ताकि संभावित हमलावरों को भ्रम में रखा जा सके.
पाकिस्तान के लिए जोखिम भरा सौदा?
हालांकि इस समझौते से पाकिस्तान को सऊदी अरब से वित्तीय और कूटनीतिक लाभ मिल सकता है, लेकिन इसके साथ कई खतरे भी जुड़े हैं. विशेष रूप से यह "म्यूचुअल डिफेंस क्लॉज" यानी अगर सऊदी पर हमला होता है, तो पाकिस्तान को सैन्य रूप से मदद करनी होगी.
यह एक खतरनाक स्थिति हो सकती है क्योंकि सऊदी पहले से ही ईरान, यमन, और हूती विद्रोहियों जैसे मामलों में उलझा हुआ है. अगर पाकिस्तान इनमें शामिल होता है, तो उसे विदेशों के युद्धों में घसीटा जा सकता है, जो कि देश की आंतरिक स्थिति को और अधिक कमजोर कर सकता है. पाकिस्तान पहले ही आर्थिक संकट, राजनीतिक अस्थिरता और आतंकी हमलों की मार झेल रहा है.
भारत और सऊदी संबंधों पर असर?
इस समझौते से भारत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. सऊदी अरब और भारत के संबंध पिछले एक दशक में काफी मजबूत हुए हैं. सऊदी अरब भारत के लिए तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है और दोनों देशों के बीच रक्षा और व्यापारिक साझेदारी बढ़ रही है.
यूरोपियन काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशन्स की विशेषज्ञ कैमिला लोन्स के अनुसार, "सऊदी की रणनीति बहु-गठबंधन वाली रही है. वह भारत-पाकिस्तान जैसे क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों के साथ संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है." उन्होंने यह भी कहा कि सऊदी के लिए अब यह संतुलन बनाए रखना कठिन हो सकता है, क्योंकि एक ओर उसे पाकिस्तान की सुरक्षा जिम्मेदारी निभानी है और दूसरी ओर भारत के साथ कारोबारी रिश्ते भी बचाए रखने हैं.
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