तालिबान के 'द ग्रेट गेम' से खौफ में पाकिस्तान, अमेरिका की अफगानिस्तान में एंट्री से थर्रा उठेंगे शहबाज!

    अफगानिस्तान 90 के दशक में जिस भू-राजनीतिक जाल में फंसा था, उसे 'द ग्रेट गेम' कहा गया—जहां सोवियत संघ, अमेरिका और तालिबान जैसे ताकतवर खिलाड़ी अपनी-अपनी चालें चल रहे थे.

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    शहबाज शरीफ | Photo: ANI

    90 के दशक में अफगानिस्तान जिस भू-राजनीतिक जाल में फंसा था, उसे 'द ग्रेट गेम' कहा गया—जहां सोवियत संघ, अमेरिका और तालिबान जैसे ताकतवर खिलाड़ी अपनी-अपनी चालें चल रहे थे. लेकिन, 2021 में जब अमेरिका ने अफगान जमीन से कदम वापस खींचे, तो ऐसा लगा कि ये शतरंजी खेल अब खत्म हो गया है. मगर अब, चार साल बाद, यह साफ हो रहा है कि ‘ग्रेट गेम’ खत्म नहीं हुआ था... वो तो बस कुछ देर के लिए रुका था.

    अब अफगानिस्तान एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय पावर पॉलिटिक्स के केंद्र में है—और इस बार गेम में अमेरिका, तालिबान, ईरान, भारत और पाकिस्तान जैसे बड़े खिलाड़ी अपने-अपने दांव चला रहे हैं.

    अमेरिका की वापसी की तैयारी और बगराम एयरबेस की अहमियत

    मार्च 2025 में अमेरिका का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल, जिसमें पूर्व अफगान दूत जालमे खलीलज़ाद शामिल थे, काबुल पहुंचा. मकसद: एक अमेरिकी नागरिक की रिहाई. लेकिन पर्दे के पीछे असल खेल था—तालिबान से दोबारा रिश्ते बनाना और बगराम एयरबेस को फिर से अमेरिकी नियंत्रण में लाना.

    ट्रंप प्रशासन पहले भी इसी रणनीति पर चल रहा था—कम सैनिक, कम खर्च, लेकिन रणनीतिक पकड़ बरकरार. तालिबान के साथ गुप्त वार्ताओं में बगराम की वापसी की बात खुलकर सामने आई है. यदि अमेरिका यह एयरबेस फिर से हासिल करता है, तो ये सिर्फ अफगानिस्तान में नहीं, बल्कि पूरे सेंट्रल और साउथ एशिया में उसकी ताकत का पुनर्स्थापन होगा.

    ईरान की दोहरी भूमिका: शांति या शक्ति संतुलन?

    दूसरी ओर, ईरान भी खामोशी से अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. भले ही उसने तालिबान को आधिकारिक मान्यता नहीं दी, लेकिन हेरात और पश्चिमी अफगान इलाकों में उसका प्रभाव साफ झलकता है. ईरान का असली मकसद है—चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को संतुलित करना और चाबहार पोर्ट को ग्वादर के सामने खड़ा करना, वो भी भारत के सहयोग से. भारत-ईरान-रूस के बीच बनता नया जियोपॉलिटिकल कॉरिडोर अब पाकिस्तान और चीन की रणनीति पर सीधा असर डाल सकता है.

    पाकिस्तान: तालिबान से दोस्ती अब दुश्मनी में बदली

    कभी तालिबान का सबसे बड़ा समर्थन देने वाला पाकिस्तान, अब खुद टीटीपी के हमलों का शिकार है, जो अफगानिस्तान से ऑपरेट कर रहे हैं. खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में बढ़ती आतंकी गतिविधियां, और अंतरराष्ट्रीय दबाव ने पाकिस्तान को दुविधा में डाल दिया है.

    अगर अमेरिका बगराम पर फिर से कब्जा करता है तो पाकिस्तान को दोहरी चोट लगेगी—एक ओर अमेरिका की वापसी से उसका क्षेत्रीय प्रभाव घटेगा, दूसरी ओर तालिबान पर उसकी पकड़ कमजोर पड़ जाएगी.

    नया ग्रेट गेम: पुराने पैटर्न, नई रणनीति

    जैसा कि लेखक आर.के. कौशिक ने अपने विश्लेषण में लिखा—डोनाल्ड ट्रंप तालिबान को आकर्षक प्रस्ताव देकर बगराम को फिर से रणनीतिक केंद्र बनाना चाहते हैं. यह अमेरिका के लिए न सिर्फ अफगानिस्तान में वापसी का दरवाजा खोलेगा, बल्कि ईरान और पाकिस्तान दोनों को कूटनीतिक शिकंजे में लेने का ज़रिया भी बनेगा.

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