जब जला दिए थे 700 तेल के कुएं, 8 महीने तक धधकती रही ज़मीन.. इजरायली अटैक ने ताजा किए 34 साल पुराने घाव

    इस ताज़ा संघर्ष ने दुनिया को एक बार फिर 1991 के खाड़ी युद्ध की तरफ लौटा दिया है, जब इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कुवैत में 700 से ज़्यादा तेल कुओं को जला दिया था. तब पूरी दुनिया ने देखा था कि युद्ध सिर्फ गोलियों और मिसाइलों से नहीं, संसाधनों और पर्यावरण पर भी हमला होता है.

    Oil Well Fire history in kuwait by iraq army Israel-Iran Conflict
    प्रतीकात्मक तस्वीर | Photo: Freepik

    Oil Well Fire: ईरान और इजरायल के बीच चल रही तनातनी अब विस्फोटक मोड़ पर पहुंच चुकी है. इजरायल ने महीनों की प्लानिंग के बाद ईरान के सैन्य और परमाणु ठिकानों को निशाना बनाकर हमला किया है. इस हमले से ईरान को भारी नुकसान पहुंचा है और हालात और गंभीर होते जा रहे हैं. ऐसे में इजरायल ने ईरान के नागरिकों को उसके परमाणु रिएक्टरों के आसपास से हटने की चेतावनी भी दी है — जिससे अंदेशा गहराया है कि एक और बड़ा हमला अभी बाकी है.

    इस ताज़ा संघर्ष ने दुनिया को एक बार फिर 1991 के खाड़ी युद्ध की तरफ लौटा दिया है, जब इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कुवैत में 700 से ज़्यादा तेल कुओं को जला दिया था. तब पूरी दुनिया ने देखा था कि युद्ध सिर्फ गोलियों और मिसाइलों से नहीं, संसाधनों और पर्यावरण पर भी हमला होता है.

    जब सद्दाम ने जलाए थे तेल के कुएं

    जनवरी-फरवरी 1991 में, जब अमेरिका के नेतृत्व में गठबंधन सेनाओं ने इराक को कुवैत से खदेड़ा, तो पीछे हटते वक्त इराकी सैनिकों ने कुवैत के लगभग 700 तेल कुओं को आग के हवाले कर दिया था. यह सिर्फ एक सैन्य रणनीति नहीं, बल्कि पर्यावरण और मानवता के खिलाफ एक भयावह हमला था. पहली आग को बुझाने में ही अप्रैल तक का समय लग गया, जबकि आखिरी कुएं की आग को शांत करते-करते 6 नवंबर 1991 आ गया. यानी 8 महीने तक ये कुएं जलते रहे. उस दौरान हर दिन लाखों बैरल कच्चा तेल और करोड़ों घन मीटर प्राकृतिक गैस नष्ट हो रही थी.

    पर्यावरण तबाही और काले धुएं की चादर

    इन जलते कुओं ने न सिर्फ तेल बर्बाद किया, बल्कि वातावरण को भी जहरीला बना दिया. 800 मील तक फैल चुकी धुएं की मोटी परतों ने दिन में भी अंधेरा कर दिया था. कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर और अन्य जहरीली गैसों ने जलवायु परिवर्तन को प्रभावित किया. फारस की खाड़ी में फैला तेल समुद्री जीवन के लिए भी विनाशकारी साबित हुआ.

    वैश्विक तेल आपूर्ति पर पड़ा गहरा असर

    इस भयावह घटना का असर सिर्फ कुवैत या खाड़ी तक सीमित नहीं रहा. दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं, खासकर तेल आयात पर निर्भर देशों को भारी नुकसान झेलना पड़ा. भारत जैसे देश, जो अपनी जरूरत का 85% तेल आयात करते हैं, उन पर सीधा असर हुआ.

    आज, ईरान-इजरायल संघर्ष भी वैसी ही आशंकाओं को जन्म दे रहा है. इजरायल ने ईरान के सबसे बड़े गैस फील्ड पर हमला कर दिया है. इससे पहले तेल डिपो पर भी निशाना साधा जा चुका है. अगर यह संघर्ष आगे बढ़ा और तेल अवसंरचनाएं युद्ध का केंद्र बन गईं, तो फिर से दुनिया को 1991 जैसी त्रासदी का सामना करना पड़ सकता है.

    भारत के लिए खतरे की घंटी

    भारत जैसे विकासशील देश, जो पश्चिम एशिया पर अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए निर्भर हैं, इस संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे. सऊदी अरब, इराक और यूएई जैसे देशों से आपूर्ति बाधित होने का मतलब है—तेल की कीमतों में जबरदस्त उछाल, महंगाई का बढ़ना और आर्थिक संतुलन पर खतरा.

    क्या इतिहास खुद को दोहराएगा?

    1991 में जो हुआ, वो एक चेतावनी थी कि युद्ध के शिकार सिर्फ सैनिक नहीं होते — बल्कि हवा, पानी, ज़मीन और भविष्य की पीढ़ियां भी होती हैं. अब जबकि इजरायल और ईरान आमने-सामने हैं, और तेल तथा गैस केंद्र युद्ध का निशाना बन रहे हैं, तो ज़रूरत है वैश्विक समुदाय के हस्तक्षेप की, ताकि हालात काबू से बाहर न हो जाएं.

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