11 साल की बच्ची ने कैसे उखाड़ फेंकी वामपंथ की सत्ता? ओली की एक गलती ने GEN Z आंदोलन की रखी नींव!

    Nepal Protest: नेपाल में राजनीतिक तूफान एकाएक नहीं उठा, उसकी नींव महीनों पहले रखी जा चुकी थी. लेकिन इसकी शुरुआत जितनी अप्रत्याशित थी, उतनी ही भावनात्मक भी. देश में अचानक सेना की सत्ता में वापसी, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का इस्तीफा और सत्ता के गलियारों में पसरा सन्नाटा, ये सब किसी रणनीतिक चाल या विपक्षी षड्यंत्र का परिणाम नहीं, बल्कि एक 11 साल की बच्ची की कराह से निकला जनसैलाब था.

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    Image Source: Social Media/X

    Nepal Protest: नेपाल में राजनीतिक तूफान एकाएक नहीं उठा, उसकी नींव महीनों पहले रखी जा चुकी थी. लेकिन इसकी शुरुआत जितनी अप्रत्याशित थी, उतनी ही भावनात्मक भी. देश में अचानक सेना की सत्ता में वापसी, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का इस्तीफा और सत्ता के गलियारों में पसरा सन्नाटा, ये सब किसी रणनीतिक चाल या विपक्षी षड्यंत्र का परिणाम नहीं, बल्कि एक 11 साल की बच्ची की कराह से निकला जनसैलाब था.

    अगस्त की शुरुआत में ललितपुर जिले के हरिसिद्धि इलाके में एक मंत्री की सरकारी गाड़ी ने पैदल सड़क पार कर रही बच्ची को टक्कर मार दी. हादसा इतना गंभीर था कि बच्ची सड़क पर लहूलुहान पड़ी रही, और सरकारी काफिला वहां से गुजर गया, बिना रुके. स्थानीय लोगों ने गाड़ी को रोका, ड्राइवर को पुलिस के हवाले किया, लेकिन अगले ही दिन वह रिहा कर दिया गया. सरकार की प्रतिक्रिया इस घटना को ‘सामान्य’ बताने की थी. यही वो पल था, जब जनसामान्य की सहनशीलता टूट गई.

    सोशल मीडिया बना जनक्रांति का शस्त्र

    सोशल मीडिया पर बच्ची की तस्वीरें वायरल हुईं. ‘#JusticeForTheGirl’ और ‘#HatyaraSarkar’ जैसे हैशटैग ने सरकार के खिलाफ गुस्से को हवा दी. लेकिन यह गुस्सा महज एक हादसे पर नहीं था. यह उस सालों की चुप्पी का विस्फोट था जो जनता ने भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और राजनीतिक अस्थिरता के खिलाफ सहन किया था.

    जब जेन Z ने मोर्चा संभाला

    जेनरेशन Z, जो अक्सर सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने वाली और राजनीतिक रूप से उदासीन मानी जाती है, इस बार नेतृत्व की भूमिका में आ गई. युवाओं के नेतृत्व में सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तेज हो गए. इस बीच 4 सितंबर को केपी ओली सरकार ने सोशल मीडिया बैन करने का फैसला लिया, फेसबुक, व्हाट्सऐप और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स को बंद कर दिया गया. सरकार के इस फैसले ने आग में घी डालने का काम किया.

    नेपाल की सड़कों पर जनता का कब्ज़ा

    8 और 9 सितंबर को काठमांडू समेत पूरे नेपाल में प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए. संसद भवन, राष्ट्रपति कार्यालय, प्रधानमंत्री आवास, कहीं भी प्रदर्शनकारियों को रोक पाना मुश्किल हो गया. यह आंदोलन किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं था. इसमें न कोई नेता था, न झंडा, यह सिर्फ जनता का गुस्सा था, जो एक बच्ची के खून से पैदा हुआ था.

    सेना की एंट्री और ओली का गायब होना

    स्थिति इतनी बिगड़ी कि प्रधानमंत्री ओली को पद से इस्तीफा देना पड़ा और सेना को शासन की जिम्मेदारी संभालनी पड़ी. इस वक्त ओली कहां हैं, इसकी जानकारी किसी के पास नहीं है. देश में अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा.

    क्या सोशल मीडिया बैन ही था आखिरी तिनका?

    क्या यह सब सिर्फ एक सोशल मीडिया बैन की वजह से हुआ? शायद नहीं. यह उसका नतीजा भर था, असली वजह वो असंतोष था जो बरसों से भीतर ही भीतर जल रहा था. और जिस दिन एक मासूम बच्ची को सड़क पर तड़पते छोड़ दिया गया, उसी दिन इस असंतोष को आवाज मिल गई.

    यह तख्तापलट नहीं, चेतना की वापसी है

    नेपाल में जो कुछ हुआ, वह किसी क्रांति से कम नहीं था. यह सत्ता के एक चेहरे के हटने भर की कहानी नहीं है, यह उस व्यवस्था को आईना दिखाने का वक्त था, जो खुद को जनतंत्र कहती है, लेकिन जनता की चीख नहीं सुनती. यह तख्तापलट नहीं, चेतना की वापसी है.

    इतिहास में दर्ज होगी यह क्रांति

    यह आंदोलन इतिहास में एक उदाहरण बनकर रहेगा कि कैसे एक मामूली दिखने वाला हादसा एक पूरे देश की राजनीतिक दिशा बदल सकता है. जब सरकार जवाबदेह न हो, जब न्याय बिक जाए, जब सोशल मीडिया पर पाबंदी लगा दी जाए, तब जनता सड़कों पर उतरती है,  और तब सत्ता की बुनियादें हिल जाती हैं.

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