पाकिस्तान तो है ही दोमुंहा सांप! लेकिन इजराइल-ईरान युद्ध में चीन क्यों बना रहा मूकदर्शक?

    Iran and Israel War: ईरान और इजरायल के बीच दो सप्ताह पहले छिड़े टकराव के बाद वैश्विक राजनीति में हलचल मच गई, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में जिस देश पर सबसे ज्यादा नजरें टिकी थीं, वो था चीन. अमेरिका को कड़ी चुनौती देने का दावा करने वाला बीजिंग शुरुआत में सक्रिय दिखा.

    Israel and Iran War Why China Not Helped iran in war
    Image Source: Social Media

    Iran and Israel War: ईरान और इजरायल के बीच दो सप्ताह पहले छिड़े टकराव के बाद वैश्विक राजनीति में हलचल मच गई, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में जिस देश पर सबसे ज्यादा नजरें टिकी थीं, वो था चीन. अमेरिका को कड़ी चुनौती देने का दावा करने वाला बीजिंग शुरुआत में सक्रिय दिखा. हमले की आलोचना की, बातचीत की अपील की, और रूस से संपर्क कर संघर्ष विराम की मांग की. लेकिन इसके बाद चीन ने अपनी भूमिका वहीं खत्म कर दी और कोई ठोस कदम नहीं उठाया.

    ईरान का ‘मित्र’ चीन बना सिर्फ ‘बोलने वाला सहयोगी’

    ईरान के लंबे समय से रणनीतिक साझेदार माने जाने वाले चीन ने इस बार सैन्य या आर्थिक मदद देने से परहेज किया. अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों के अनुसार, यह चीन की कूटनीतिक सीमाओं और जोखिम से बचने की नीति को उजागर करता है. बीजिंग का मकसद स्पष्ट है.  व्यापार में वृद्धि, लेकिन युद्ध से दूरी. ‘रैंड कॉरपोरेशन’ के चाइना सेंटर निदेशक जूड ब्लेंचैट का मानना है कि चीन के पास न तो त्वरित हस्तक्षेप की कूटनीतिक क्षमता है और न ही जोखिम उठाने का माद्दा. वहीं नानजिंग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर झू फेंग ने कहा कि पश्चिम एशिया की अशांति चीन के आर्थिक हितों के लिए खतरा है, और वह किसी भी सूरत में अपने तेल आपूर्ति चैन को खतरे में नहीं डालना चाहता.

    चीन के लिए ईरान से तेल अहम, सैन्य मदद नहीं

    चीन, जो अपनी ऊर्जा ज़रूरतों का बड़ा हिस्सा ईरान से पूरा करता है, इस संघर्ष में तेल आपूर्ति को बनाए रखने के अलावा किसी भी तरह की गहरी भागीदारी से दूर रहा. अमेरिकी ऊर्जा सूचना प्रशासन की रिपोर्ट के मुताबिक, ईरान का करीब 80–90% तेल निर्यात चीन को होता है. जाहिर है, बीजिंग के लिए ईरान एक ऊर्जा भागीदार है, न कि रणनीतिक सैन्य सहयोगी.

    चीन का ‘संतुलन साधने’ का रवैया

    बीजिंग ने संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव लाकर इजरायल के हमलों की निंदा की, लेकिन अमेरिका के वीटो की संभावना पहले से ही स्पष्ट थी. वहीं चीन की ओर से न तो कोई ड्रोन, न हथियार और न ही कोई आर्थिक राहत पैकेज ईरान को दिया गया. चीन ने बयानबाज़ी की, लेकिन ज़मीन पर कदम उठाने से परहेज किया. थिंक टैंक 'फाउंडेशन फॉर डिफेंस ऑफ डेमोक्रेसीज' के विशेषज्ञ क्रेग सिंगलटन का कहना है, “चीन के लिए यह सिर्फ ईरान से तेल खरीदना और सऊदी-अमेरिका को नाराज़ न करना था.”

    रणनीतिक साझेदारी, लेकिन सीमित

    भले ही चीन और ईरान के बीच बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसी साझेदारियां हैं, लेकिन जैसे ही युद्ध जैसी परिस्थिति आई, बीजिंग ने अपनी भूमिका एक दर्शक तक सीमित रखी. हालांकि चीन ने रूस और ईरान के साथ सैन्य अभ्यास किए, फिर भी यह साझेदारी सिर्फ दिखावे तक सीमित रह गई.

    यह भी पढ़ें: अमेरिका ने युद्धों पर 480 लाख करोड़ रुपये उड़ा दिए, 9.4 लाख लोगों की हुई मौत; हैरान कर देगी ये रिपोर्ट