अगर आप कंबोडिया और थाईलैंड की सीमा पर डांग्रेक पहाड़ियों की ओर देखेंगे, तो एक ऐसा मंदिर दिखेगा जो न सिर्फ धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि दो देशों के बीच दशकों से चले आ रहे सीमा विवाद का कारण भी बना हुआ है. ये है प्रिय विश्वकर्मा मंदिर, जिसे स्थानीय भाषा में प्रेह विहियर मंदिर कहा जाता है.
भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर की ऊंचाई, वास्तुकला और ऐतिहासिक महत्ता तो है ही, लेकिन उसकी सबसे खास बात यह है कि यह मंदिर जहां खड़ा है, वहां की जमीन विवादों में डूबी हुई है. अब सवाल ये है कि एक मंदिर जो 9वीं सदी में बनना शुरू हुआ, वो 21वीं सदी की राजनीति में कैसे उलझ गया? चलिए, इसे थोड़ा सरल तरीके से समझते हैं.
इतिहास में गढ़ा गया मंदिर, आज विवाद का केंद्र
ये मंदिर तब का है जब कंबोडिया में खमेर साम्राज्य की तूती बोलती थी. यशोवर्मन प्रथम ने सबसे पहले इसकी नींव रखी थी. फिर सूर्यवर्मन प्रथम और द्वितीय ने इसे आगे बढ़ाया, संवारा, सजाया. यह वही सूर्यवर्मन हैं जिन्होंने अंगकोरवाट जैसा विश्वप्रसिद्ध मंदिर भी बनवाया था. इन राजाओं ने भारतीय परंपराओं, स्थापत्य शैलियों और संस्कृतियों को पूरी गंभीरता से अपनाया और अपने साम्राज्य में उतारा.
प्रिय विश्वकर्मा मंदिर दरअसल शिव का मंदिर है, जिसे ‘शिखरेश्वर’ कहा जाता था — यानी पहाड़ की चोटी पर विराजमान शिव. वाकई में ये मंदिर करीब 525 मीटर ऊंची चट्टान पर खड़ा है. ऊपर से नीचे तक सीढ़ियों का सिलसिला है, चारों ओर नक्काशीदार द्वार, गोपुरम, दीवारें और शिलालेख. ये सिर्फ पत्थरों की इमारत नहीं, ये एक सभ्यता की चुप गवाही है.
लेकिन ये विवाद का कारण क्यों है?
मंदिर की सबसे बड़ी ‘समस्या’ उसकी भौगोलिक स्थिति है. वो एकदम सीमा पर है — जहां कंबोडिया और थाईलैंड की जमीनें टकराती हैं. 1962 में, मामला इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ) पहुंचा. कोर्ट ने फैसला सुनाया कि मंदिर कंबोडिया का हिस्सा है. थाईलैंड ने इसे मान तो लिया, लेकिन दिल से कभी स्वीकार नहीं किया.
2008: जब UNESCO ने आग में घी डाला
जैसे ही कंबोडिया ने इस मंदिर को यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल करवाया, थाईलैंड भड़क उठा. वजह? थाईलैंड को लगा कि मंदिर के आसपास का 4.6 वर्ग किलोमीटर का इलाका भी कंबोडिया हड़पने की कोशिश कर रहा है. इसके बाद थाईलैंड में राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू हो गए. संसद की कार्यवाही तक ठप कर दी गई. सीमा पर झड़पें हुईं. दोनों देशों के सैनिक आमने-सामने खड़े हो गए. कई लोग मारे भी गए.
मंदिर की पूजा से लेकर वीरान होने तक का सफर
9वीं से 12वीं सदी तक इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा होती थी. राजा खुद पूजा करवाते थे, आमजन यहां दर्शन के लिए आते थे. इसे उस दौर में स्वर्ग और पृथ्वी को जोड़ने वाला स्थल माना जाता था. लेकिन 13वीं सदी के बाद खमेर साम्राज्य का असर कम होने लगा, बौद्ध धर्म का प्रसार बढ़ा और मंदिर की पूजा गतिविधियां धीमी हो गईं. कुछ स्थानीय समुदायों ने इसे अपनी परंपरा में बनाए रखा, लेकिन धीरे-धीरे ये मंदिर वीरान होता चला गया.
आज की स्थिति
हालांकि मंदिर का बड़ा हिस्सा अब भी खड़ा है. कुछ संरचनाएं ज़रूर समय और मौसम की मार से कमजोर हो चुकी हैं. लेकिन 2008 में जब इसे यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज घोषित किया गया, तो इसके संरक्षण की कोशिशें तेज हो गईं. कंबोडिया सरकार और अंतरराष्ट्रीय संगठन मिलकर इसकी मरम्मत और रखरखाव में जुटे हुए हैं. अब ये मंदिर टूरिज़्म का बड़ा केंद्र है और हर साल हजारों लोग इसे देखने आते हैं.
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