इतिहास बार-बार यह साबित करता रहा है कि अंधेरे की सबसे घनी परत के बीच भी इंसानियत की कोई न कोई चिंगारी जरूर जलती है. ऑस्ट्रेलिया के सिडनी स्थित बोंडी बीच पर हुई हिंसक घटना की वह शाम भी कुछ ऐसी ही थी. गोलियों की आवाज, चीख-पुकार और अफरा-तफरी के बीच दो नाम सामने आए- नवीद अकरम और अहमद अल-अहमद. नाम अलग-अलग थे, रास्ते अलग-अलग थे और कर्मों का अंतर इतना गहरा था कि एक ने इंसानियत को शर्मसार किया, तो दूसरे ने उसी इंसानियत की जान बचाई.
रविवार की शाम बोंडी बीच पर यहूदी समुदाय के लोग हनुक्का त्योहार के मौके पर एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जुटे थे. माहौल खुशनुमा था, परिवार और बच्चे रोशनी के इस पर्व का जश्न मना रहे थे. तभी अचानक गोलियों की तड़तड़ाहट ने पूरे इलाके को दहला दिया. खुशी का माहौल कुछ ही पलों में डर और मौत के साए में बदल गया.
नवीद अकरम: पढ़ा-लिखा, लेकिन नफरत से भरा
जांच एजेंसियों के अनुसार, इस हमले में शामिल मुख्य हमलावरों में से एक 24 वर्षीय नवीद अकरम था. वह सिडनी के बॉनिरिग इलाके में रह रहा था और उसकी जड़ें पाकिस्तान से जुड़ी बताई गईं. रिपोर्ट्स के मुताबिक, वह शिक्षित था और उसने देश-विदेश के शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाई की थी.
उसके पास विकल्प थे- एक सामान्य, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जीने के मौके थे. लेकिन उसने वह रास्ता चुना जो नफरत, हिंसा और कट्टर सोच से होकर गुजरता है. हाथ में हथियार लेकर वह ऐसे लोगों पर टूट पड़ा, जिनसे उसका कोई व्यक्तिगत विवाद नहीं था. उसका मकसद डर फैलाना और निर्दोषों की जान लेना था. इस हमले में 12 लोगों की मौत हुई और कई अन्य घायल हो गए.
नवीद अकरम उस सोच का प्रतीक बन गया, जहां विचारधारा इंसानियत से ऊपर रख दी जाती है और हिंसा को सही ठहराने की कोशिश की जाती है.
अहमद अल-अहमद: आम आदमी, असाधारण साहस
उसी जगह, उसी समय एक और शख्स मौजूद था- 43 वर्षीय अहमद अल-अहमद. न वह किसी सुरक्षा एजेंसी से जुड़ा था, न उसके पास कोई हथियार था. वह पेशे से फलों की दुकान चलाने वाला एक साधारण नागरिक है, एक परिवार वाला इंसान.
जब गोलियां चलनी शुरू हुईं, तो जहां ज्यादातर लोग जान बचाने के लिए भाग रहे थे, अहमद ने पीछे हटने के बजाय आगे बढ़ने का फैसला किया. उसने यह नहीं देखा कि सामने कौन-सा धर्म है, कौन-सी पहचान है या खतरा कितना बड़ा है. उसने सिर्फ यह देखा कि सामने खड़े लोग मौत के मुंह में हैं.
निहत्था होकर हथियारबंद हमलावर से भिड़ गया
प्रत्यक्षदर्शियों और सामने आए वीडियो फुटेज के अनुसार, अहमद अल-अहमद ने जान की परवाह किए बिना हमलावर पर पीछे से झपट्टा मारा. उन्होंने उसे जमीन पर गिराया, संघर्ष किया और उसके हाथ से हथियार छीन लिया. अगर उस पल अहमद ने साहस न दिखाया होता, तो मरने वालों की संख्या और भी बढ़ सकती थी.
अहमद ने कोई नारा नहीं लगाया, कोई दावा नहीं किया. उसने बस वह किया जो एक इंसान को दूसरे इंसान के लिए करना चाहिए- उसे बचाने की कोशिश.
शिक्षा बनाम संस्कार
यह कहानी डिग्रियों और साधनों की नहीं है, यह सोच और परवरिश की कहानी है. एक तरफ नवीद अकरम था, जिसके पास शिक्षा थी लेकिन विवेक नहीं. दूसरी तरफ अहमद अल-अहमद था, जिसके पास शायद बड़ी डिग्रियां न हों, लेकिन उसके अंदर इंसानियत, साहस और जिम्मेदारी की गहरी समझ थी.
एक ने हथियार उठाया ताकि वह जान ले सके, दूसरे ने हथियार छीना ताकि जान बचा सके. बोंडी बीच की यह घटना एक बार फिर याद दिलाती है कि किसी इंसान की पहचान उसके नाम, धर्म या समुदाय से नहीं होती. पहचान उसके कर्मों से बनती है. नवीद अकरम ने अपने काम से नफरत और हिंसा का चेहरा दिखाया, जबकि अहमद अल-अहमद ने यह साबित किया कि हीरो बनने के लिए वर्दी या हथियार नहीं, बल्कि हिम्मत और इंसानियत चाहिए.
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