मुहर्रम में क्यों मनाया जाता है गम? क्या है करबला के 72 शहीदों की दास्तां? पढ़ें पूरी कहानी

    मुहर्रम की शुरुआत के साथ ही मुसलमान उभरती आस्था और गहरे अक्स या ‘गम’ के साथ ऐतिहासिक करबला की जंग को याद करते हैं.

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    प्रतीकात्मक तस्वीर/Photo- FreePik

    नई दिल्ली: मुहर्रम की शुरुआत के साथ ही मुसलमान उभरती आस्था और गहरे अक्स या ‘गम’ के साथ ऐतिहासिक करबला की जंग को याद करते हैं. यह घटना मुसलमानों की आस्था में एक अहम मोड़ बन चुकी है. 10 मुहर्रम 61 हिजरी (10 अक्टूबर 680 ई.) को इराक के करबला मैदान में हुई यह लड़ाई इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस जंग में इमाम हुसैन इब्न अली, पैगंबर मुहम्मद (स.) के नाती, और उनके 72 वफादार साथियों ने सत्य और इंसानियत की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान की थी.

    पानी के बिना तीन दर्दनाक दिन

    करबला की लड़ाई केवल तलवारों और भालों की नहीं थी, बल्कि यह प्यास और भूख के साथ एक पूरी आध्यात्मिक, नैतिक और मानवीय परीक्षा थी.
    जब इमाम हुसैन और उनका परिवार 7 मुहर्रम से पहले पानी की आपूर्ति से वंचित कर दिए गए, तो उनकी भीषण प्यास ने तीन दिन तक उन्हें सताया. वे भूखे-प्यासे रहे, लेकिन उनकी आस्था अडिग रही. पानी के बिना 10 मुहर्रम (आशूरा) पर यह संघर्ष अपना चरम पर पहुंचा, जब पूरी यज़ीद की सेना ने उस कैंप पर हमला कर दिया.

    इमाम हुसैन और 72 वफादार साथी

    इमाम हुसैन इब्न अली: तीसरे शिया इमाम, जिन्होंने दूसरों की मौत के बाद भी लड़ना नहीं छोड़ा—यह लड़ाई आदर्श, न्याय और अटल आस्था की लड़ाई थी. अंत में उन्हें क्रूरता से मारा गया, और उनका सिर यज़ीद के पास दिमिश्क भेजा गया.

    अली अकबर इब्न हुसैन: इमाम का युवा बेटा, जो पैगंबर (स.) की शक्ल और उनकी नीयत में समान थे. उन्होंने पिता के साथ मिलकर से लड़ाई की शुरुआत की, लेकिन भयावह चोट के परिणामस्वरूप शहीद हुए—उनकी शहादत ने आस्था के खेमों को झकझोरा.

    अली असगर इब्न हुसैन: केवल 6 महीने का मासूम, जिसने पानी की भीख के लिए पिता के सामने हाथ बढ़ाया, लेकिन तीन मुंह का तीर उसके गले से होते हुए उसके पिता को भी छू गया. यह वेदना आज भी हर इंसान के दिल को झकझोर देती है.

    कासिम इब्न हसन: 13 वर्ष के इस युवा ने अपने परिवार के प्रति निष्ठा में लड़ाई में हिस्सा लिया और घोड़ों के नीचे कुचलकर शहीद हुए. उनकी हत्या ने कैंप को सन्न करा दिया.

    मुस्लिम इब्न अकील: करबला की लड़ाई से पहले इस नेता को कूफा की राजनीति में धोखा देकर फंसा दिया गया था. वह नेपाल से फेंककर शहीद किया गया और उन्होंने पहली शहादत की परवाह छोड़ कर संदेश दिया कि सत्य कितनी भी मुश्किलात में खड़ा हो सकता है.

    हबीब इब्न मज़ाहिर: इमाम के बचपन के दोस्त, जिन्होंने अंतिम वक्त में खत लिखकर करबला में प्रतिभाग किया. उन्होंने पहली लड़ाई में ही आस्था और प्रफुल्लित मन के साथ शहादत चुनी.

    हुर इब्न यज़ीद रियाही: यज़ीद की सेना का एक कमांडर, जिसने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लड़ाई में इमाम का साथ दिया. उन्हें आस्था की पहचान मिली—उन्होंने बदले की नहीं, पश्चाताप की स्थापना की.

    अन्य साथियों— ज़ुहैर, बुरैर, सुवैद, अनस इब्न हारीस समेत 62 अन्य. ये सभी प्यास और क्षति के बावजूद भी अदम्य जज़्बे की मिसाल बने. कुछ ने मस्जिद में लबादे के दौरान शहादत पाई तो कुछ आखिरी सांस तक खड़े रहे, और पश्चाताप और निष्ठा के उन्नत चरितार्थ बने.

    करबला: न्याय की राह पर चलने कीपरंपरा

    करबला की 72 शहादत सिर्फ एक ऐतिहासिक लड़ाई नहीं, बल्कि अत्याचार के खिलाफ मानवता की लड़ाई है. मुहर्रम और अरबईन के मौके पर दुनिया भर के लोग उनके प्रति श्रद्धा और सद्गवनीयता व्यक्त करते हैं.

    भारत में भी न केवल मुसलमान, बल्कि कई हिन्दू, सिख और अन्य धर्मों के लोग अपनी श्रद्धा से ‘ताज़िया’, ‘अलम’ आदि सजाकर इस मानवता की जीत को याद करते हैं. महात्मा गांधी, नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव जैसे नेताओं ने भी इमाम हुसैन की शहादत को सामाजिक न्याय और नैतिकता के प्रतीक के रूप में याद किया है.

    करबला की गाथा: क्यों अभी भी रस्में रोलती हैं?

    मुहर्रम का महीना: इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना माना जाता है, जिसे “ग़म का महीना” कहा जाता है.

    आशूरा का दिन (मुहर्रम): यह उस दिन को कहा जाता है जब शहादतें हुईं—अदालत, खुले मंच और सार्वजनिक कार्यक्रमों के जरिए याद किया जाता है.

    जनहित: ज़ालिम के खिलाफ मुश्किल समय में सच्चाई और इंसानियत के राह पर चलने की प्रेरणा आज भी अमूल्य है.

    करबला की गाथा यह दिखाती है कि कैसी बुद्धि, धर्म, न्याय, इंसानियत साधने के लिए कभी-कभी अपने सर्वोच्च बलिदान देने पड़ते हैं.

    आज का संदेश

    इस्लामिक स्कॉलर डॉ. कल्बे रुशेद रिजवी न केवल करबला की शहादत को याद करते हैं, बल्कि गाज़ा, यमन और अन्य युद्धग्रस्त इलाकों में सबसे छोटे बच्चों की तकलीफ में इमाम हुसैन की मिसाल देखते हैं और कहते हैं: “इंसानियत के साथ खड़े रहना करबला से सीखा गया सबक है.”

    हिंदू, सिख, नास्तिक—हर कोई करबला की इस मानवता की लड़ाई में कामयाब संदेश पाता है:

    • हम अवलंबी होते हैं मानवता के साथ
    • हम याद करते हैं कुरबानी की आस्था
    • हम जीवन की राह में खड़े समस्याओं को बाँटते हैं, और
    • हम भरोसा करते हैं कि इंसानियत कभी मर नहीं सकती.

    आज भी टाज़िया और अलम के बीच, सोच और संवेदना के बीच, हमें याद आता है कि करबला की लड़ाई सिर्फ इमारत नहीं, बल्कि इंसानी पहचान की पुकार है—हक़ का सामना करने की, और याद रखने की कि जिम्मेदारी सिर्फ विरोध करने की नहीं, बल्कि खड़ा रह कर बदलने की भी होती है.

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