जियाउल हक और अयूब खान से क्यों हो रही असीम मुनीर की तुलना? पाकिस्तान में फिर होगा अमेरिका का खेला?

    पाकिस्तान की राजनीति और सैन्य नेतृत्व एक बार फिर वैश्विक विश्लेषकों के ध्यान का केंद्र बन गई है. इस बार केंद्र में हैं जनरल असीम मुनीर, जो न केवल पाकिस्तान सेना के वर्तमान प्रमुख हैं, बल्कि देश के सत्ता समीकरणों में धीरे-धीरे एक निर्णायक चेहरा बनते दिख रहे हैं.

    Why is Asim Munir being compared to Ziaul Haq and Ayub Khan
    प्रतिकात्मक तस्वीर/ Sociel Media

    पाकिस्तान की राजनीति और सैन्य नेतृत्व एक बार फिर वैश्विक विश्लेषकों के ध्यान का केंद्र बन गई है. इस बार केंद्र में हैं जनरल असीम मुनीर, जो न केवल पाकिस्तान सेना के वर्तमान प्रमुख हैं, बल्कि देश के सत्ता समीकरणों में धीरे-धीरे एक निर्णायक चेहरा बनते दिख रहे हैं.

    पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से उनके कद में बढ़ोतरी हुई है, विशेषकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, खासकर अमेरिका में, उसने इस बहस को जन्म दिया है: क्या असीम मुनीर पाकिस्तान के अगले "मजबूत आदमी" बनने की दिशा में बढ़ रहे हैं? और क्या उनकी तुलना पाकिस्तान के पूर्व सैन्य शासकों, जैसे जनरल अयूब खान और जनरल जियाउल हक से करना जायज़ है?

    अमेरिका से मिले संकेत: प्रतीक या संकेत?

    जनरल मुनीर की हालिया अमेरिका यात्रा सामान्य कूटनीतिक दौरा नहीं थी. इस यात्रा को खास बनाता है वह आतिथ्य जो आम तौर पर केवल राष्ट्राध्यक्षों को दिया जाता है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा मुनीर को ओवल ऑफिस में आमंत्रित करना, और उनके साथ निजी बातचीत करना, स्पष्ट रूप से यह संकेत देता है कि अमेरिका में उन्हें पाकिस्तान की सत्ता का एक प्रमुख धुरी माना जा रहा है.

    इसका सीधा असर पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति पर भी देखने को मिल रहा है. प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के लिए यह स्थिति असहज है. जब सेना प्रमुख को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रधानमंत्री से अधिक महत्व मिल रहा हो, तो यह सिविल-सैन्य संबंधों में तनाव की आहट हो सकती है.

    फील्ड मार्शल की उपाधि: इतिहास दोहराने की भूमिका?

    मई 2025 में जब असीम मुनीर को ‘फील्ड मार्शल’ की उपाधि दी गई, तो यह महज एक औपचारिक सम्मान नहीं था. पाकिस्तान के इतिहास में यह रैंक अब तक केवल एक व्यक्ति जनरल अयूब खान को मिला था. और अयूब ने कुछ ही वर्षों के भीतर देश में मार्शल लॉ लगाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया था.

    ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह उपाधि मुनीर के लिए भी राजनीतिक रास्ता खोलने का संकेत है? भले ही सेना के प्रवक्ताओं और सरकार ने इस संभावना को खारिज किया है, लेकिन इतिहास का अनुभव कुछ और ही कहता है.

    इमरान खान: एक उलझा हुआ धागा

    पाकिस्तान की सियासत में इमरान खान का मामला अब भी एक बड़ा संकट बना हुआ है. पूर्व प्रधानमंत्री की गिरफ्तारी की वर्षगांठ पर पूरे देश में प्रदर्शन हुए, जबकि उनकी पार्टी पर प्रतिबंध के बावजूद उनके समर्थकों ने 2024 के चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया.

    यह मसला असीम मुनीर के लिए एक दोधारी तलवार है. अगर वे इमरान खान के प्रति सख्ती बरकरार रखते हैं, तो ट्रंप जैसे वैश्विक नेताओं से रिश्तों में दूरी बढ़ सकती है. वहीं, नरमी दिखाने का अर्थ है मौजूदा सरकार से सीधा टकराव. इस संतुलन को साधना शायद उनकी सबसे कठिन परीक्षा है.

    सुरक्षा और आतंकवाद की दोहरी चुनौती

    देश के अंदरूनी हालात भी असीम मुनीर के सामने गंभीर चुनौती पेश कर रहे हैं. TTP (तेहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) ने 2022 में संघर्षविराम तोड़ने के बाद हमलों में तेज़ी ला दी है, वहीं बलूचिस्तान में BLA जैसे अलगाववादी संगठनों के हमले लगातार जारी हैं.

    इन हमलों से यह साफ है कि सेना को न केवल सीमाओं पर, बल्कि घरेलू सुरक्षा व्यवस्था को लेकर भी बड़ी चिंता है. जनरल मुनीर के लिए यह सिरदर्द इसलिए भी है क्योंकि ऐसे हमले सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान की नाकामी का प्रतीक बनते हैं.

    आर्थिक संकट: स्थिरता की नींव डगमगाई

    पाकिस्तान की आर्थिक हालत भी दिन-ब-दिन बिगड़ रही है. IMF के साथ हुए 7 अरब डॉलर के बेलआउट समझौते के बावजूद, सरकार अपने तय लक्ष्यों में से अधिकतर को पाने में विफल रही है. निवेशकों का भरोसा गिरा है, और प्रांतीय सरकारों का खर्च बेकाबू हो चुका है.

    इसका असर न केवल आम जनता की जिंदगी पर पड़ रहा है, बल्कि सियासत और सेना के रिश्तों पर भी दिखाई देने लगा है. अतीत में जब भी पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था गिरी है, सेना ने या तो सीधा दखल दिया है या फिर बैकडोर से सत्ता की बागडोर थामी है.

    शरीफ की राह कठिन, मुनीर का बढ़ता प्रभाव

    वर्तमान प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के लिए यह माहौल एक बड़ी चुनौती है. वे एक लोकतांत्रिक नेता हैं, लेकिन सत्ता की असली ताकत कहीं और सिमटती जा रही है. अगर अमेरिका और चीन जैसे देशों में असीम मुनीर की छवि और मजबूत होती है, तो यह सिविल-सैन्य सत्ता संतुलन को पूरी तरह उलट सकता है.

    पाकिस्तान में सेना का राजनीतिक इतिहास रहा है. चाहे वह 1958 का अयूब खान का तख्तापलट हो या 1977 में जियाउल हक का शासन, हर बार जब सेना को ज्यादा ताकत मिली है, लोकतंत्र कमजोर हुआ है.

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