भयानक होता है युद्ध के बीच 'ब्लैकआउट', घरों में कैद हो जाते हैं लोग, चारों तरफ अंधेरा... जानिए जान को कितना खतरा?

    Mock Drills : जब युद्ध की गूंजें धरती से आसमान तक फैलती हैं, तब केवल मोर्चे पर नहीं, घरों के भीतर भी एक अनदेखा युद्ध शुरू हो जाता है—रौशनी और अंधेरे के बीच.

    What happens in a blackout Know more
    प्रतीकात्मक तस्वीर | Photo: Freepik

    Mock Drills : जब युद्ध की गूंजें धरती से आसमान तक फैलती हैं, तब केवल मोर्चे पर नहीं, घरों के भीतर भी एक अनदेखा युद्ध शुरू हो जाता है—रौशनी और अंधेरे के बीच. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, "ब्लैकआउट" एक ऐसी रणनीति बन गई, जिसने लाखों लोगों के दैनिक जीवन को पूरी तरह बदल दिया.

    ब्लैकआउट का मकसद सीधा था: दुश्मन के विमानों और पनडुब्बियों को निशाना तय करने में दिक्कत हो, ताकि रात के अंधेरे का फायदा उठाकर होने वाली बमबारी को रोका जा सके.

    कैसा था ब्लैकआउट का नियम और वातावरण?

    1939 में ब्रिटेन द्वारा युद्ध की घोषणा से पहले ही ब्लैकआउट के सख्त निर्देश जारी कर दिए गए थे. हर खिड़की और दरवाजे को भारी पर्दों या गहरे रंग की चादरों से इस तरह ढका जाता कि एक किरण भी बाहर न निकल सके. सरकार ने ब्लैकआउट मटीरियल्स की सप्लाई सुनिश्चित की ताकि आम लोग नियमों का पालन कर सकें.

    सभी स्ट्रीट लाइट्स या तो बंद कर दी जाती थीं या उन पर इस तरह से मास्क लगाया जाता था कि रोशनी केवल जमीन की ओर जाए. दुकानों को डबल दरवाजों (एयरलॉक सिस्टम) का उपयोग करना पड़ता था, ताकि अंदर की रौशनी बाहर न झलके.

    फैक्ट्रियों की छतों को काले रंग से रंगा जाता था. इससे दिन के समय भी सूरज की रोशनी अंदर न आ सके. अंदर काम करने वाले कर्मचारियों को हमेशा कृत्रिम रोशनी में काम करना पड़ता था, जिससे उनका मनोबल प्रभावित होता था.

    वाहनों पर ब्लैकआउट के प्रभाव

    वाहनों के लिए बनाए गए नियमों का पालन करना बेहद जरूरी था क्योंकि हेडलाइट की एक किरण भी दुश्मन को रास्ता दिखा सकती थी.

    • हेडलाइट मास्क: एक ही हेडलाइट इस्तेमाल करने की इजाजत थी, वो भी विशेष स्लिट मास्क के साथ.
    • रियर लैंप: इतना छोटा कि केवल 30 गज तक ही दिखे, 300 गज दूर से नहीं.
    • सफेद रंग: बंपर और किनारों पर सफेद रंग से पेंट किया जाता था ताकि पैदल यात्रियों को अंधेरे में दिख सके.
    • गति सीमा: रात के समय 32 किमी/घंटा की सीमा तय की गई थी.

    कानून का पालन और ARP वार्डन की भूमिका

    ब्लैकआउट का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करने के लिए एयर रेड प्रीकॉशन्स (ARP) वार्डन तैनात किए गए थे. ये वार्डन रातभर सड़कों पर गश्त करते और जहां कहीं भी रोशनी दिखाई देती, तुरंत चेतावनी देते या जुर्माना लगाते. एक महिला को ब्लैकआउट उल्लंघन पर केवल रोशनी जलाने के लिए £2 का जुर्माना भरना पड़ा था—जो उस समय एक बड़ी रकम थी.

    ब्लैकआउट के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव

    सिर्फ बम नहीं, ब्लैकआउट के कारण सड़कें भी खतरनाक हो गई थीं. अंधेरे में बढ़ती दुर्घटनाओं के कारण अकेले सितंबर 1939 में 1130 लोग सड़कों पर मारे गए. लोग रात को घरों में कैद हो जाते. बाजार जल्दी बंद होते, थिएटर सूने रहते और सामाजिक गतिविधियाँ लगभग बंद हो जातीं. अंधेरे का फायदा उठाकर जेबकतरों और चोरों की संख्या बढ़ गई. तटीय इलाकों में नाविक रात को पानी में गिरकर अपनी जान गंवा बैठते थे.

    हालांकि ब्लैकआउट से दुश्मन की बमबारी कुछ हद तक जटिल हुई, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि लैंडमार्क्स जैसे नदियां, रेल पटरियां और सड़कें दुश्मन के लिए पर्याप्त थीं. फिर भी, खासकर तटीय इलाकों में, यह जहाजों को पनडुब्बियों से बचाने में बेहद उपयोगी साबित हुआ.

    वर्तमान में ब्लैकआउट की भूमिका

    आज के दौर में जहां सैटेलाइट, नाइट विजन और रडार टेक्नोलॉजी ने युद्ध के तरीके बदल दिए हैं, ब्लैकआउट का असर सीमित हो गया है.फिर भी, जैसे कि 5 मई 2025 को फिरोजपुर (पंजाब) में युद्ध अभ्यास के दौरान ब्लैकआउट किया गया—यह बताता है कि संकट के समय यह रणनीति अब भी नागरिक सुरक्षा का अहम हिस्सा मानी जाती है.

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