ईरान और इजरायल के बीच बढ़ते टकराव ने खाड़ी देशों को असहज स्थिति में डाल दिया है. खासतौर पर अमेरिका के करीबी माने जाने वाले जॉर्डन और सऊदी अरब इस संघर्ष में दोहरी रणनीति अपनाते नजर आ रहे हैं. एक ओर जहां इन देशों ने अन्य मुस्लिम देशों के साथ मिलकर इजरायल की कार्रवाई की खुलकर निंदा की है, वहीं दूसरी ओर उनके कदम इजरायल की मदद करने की तरफ भी इशारा कर रहे हैं.
हाल ही में 21 मुस्लिम बहुल देशों ने एक साझा बयान में ईरान पर इजरायल के हमलों की कड़ी आलोचना की. इन हस्ताक्षरकर्ता देशों में जॉर्डन और सऊदी अरब भी शामिल हैं. लेकिन विरोध के सार्वजनिक बयानों के पीछे जमीनी सच्चाई कुछ और ही दिखती है. रिपोर्ट्स के अनुसार, जॉर्डन ने ईरान द्वारा इजरायल पर दागे गए मिसाइलों को अपनी हवाई सीमा में ही रोक दिया, वहीं सऊदी अरब ने कथित रूप से इजरायली विमानों को अपने हवाई क्षेत्र का उपयोग करने दिया.
जमीन पर कुछ और, मंच पर कुछ और
जॉर्डन की सेना ने आधिकारिक बयान में माना कि उसने उन मिसाइलों को निशाना बनाया जो उसकी सीमा में घुस सकती थीं और आबादी वाले इलाकों में नुकसान कर सकती थीं. सरकार का तर्क है कि यह कदम पूरी तरह आत्मरक्षा के तहत उठाया गया. मगर जानकार मानते हैं कि यह एक कूटनीतिक संतुलन साधने की कोशिश है — जिसमें जॉर्डन खुद को जनता के सामने इजरायल विरोधी बनाए रखना चाहता है, जबकि पर्दे के पीछे वह अमेरिका और इजरायल दोनों के साथ समन्वय कर रहा है.
जर्मनी स्थित Middle East Minds संस्था के विशेषज्ञ स्टेफन लुकास के मुताबिक, जॉर्डन सरकार के लिए यह एक नाजुक स्थिति है. मिसाइलों को मार गिराना सुरक्षा के लिहाज से जरूरी था, लेकिन उसे इस तरह पेश करना जरूरी है कि जनता इसे इजरायल के समर्थन के रूप में न देखे. जॉर्डन की अमेरिकी सहायता पर गहरी निर्भरता और सुरक्षा साझेदारी उसे खुलकर अमेरिका या इजरायल का विरोध करने से रोकती है.
सऊदी अरब की ‘चुपचाप साझेदारी’
सऊदी अरब की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है. आधिकारिक तौर पर इजरायल के हमलों की निंदा की जा रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि वह अपने उत्तरी हवाई क्षेत्र से इजरायल को तकनीकी और निगरानी सहयोग दे रहा है. विशेषज्ञ मानते हैं कि यह सहयोग चुपचाप हो रहा है ताकि देश के भीतर और मुस्लिम जगत में उसकी छवि को नुकसान न पहुंचे.
लुकास के अनुसार, सऊदी अरब की सुरक्षा नीति वर्षों से अमेरिका पर आधारित रही है, खासतौर पर ईरान के प्रति उसकी सख्त नीति के दौरान. ऐसे में अमेरिका की लाइन से हटकर चलना सऊदी नेतृत्व के लिए आसान नहीं है. इजरायल के साथ बढ़ती नजदीकियों को वह खुलकर स्वीकार नहीं कर सकता, लेकिन उसे पूरी तरह नकार भी नहीं सकता.
कूटनीति की कसौटी पर खाड़ी देश
इस पूरे घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है कि खाड़ी देश विशेष रूप से जॉर्डन और सऊदी अरब अब एक बेहद संवेदनशील संतुलन साधने की कोशिश कर रहे हैं. एक ओर उन्हें अपनी जनता और मुस्लिम दुनिया की भावनाओं का ध्यान रखना है, दूसरी ओर अमेरिका और इजरायल जैसे सहयोगियों की उम्मीदें भी उन्हें दबाव में रखती हैं.
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