नई दिल्ली: भारत में बदलते सामाजिक परिदृश्य और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणाओं के बीच सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर एक अहम टिप्पणी की है, जो इस विषय पर भविष्य में होने वाली कानूनी बहसों के लिए मार्गदर्शक साबित हो सकती है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि दो वयस्क लंबे समय तक एक साथ रहते हैं, तो यह माना जा सकता है कि उन्होंने आपसी सहमति से इस जीवनशैली को चुना है, और यह सहमति स्वैच्छिक, समझदारीपूर्ण और विवेकपूर्ण थी.
मामले की पृष्ठभूमि और न्यायालय की टिप्पणी
यह टिप्पणी एक आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान की गई, जिसमें एक महिला ने अपने पूर्व लिव-इन पार्टनर पर बलात्कार का आरोप लगाया था. हालांकि, अदालत ने पाया कि दोनों पक्षों के बीच दो साल से अधिक समय तक सहमति से शारीरिक संबंध बने रहे और इस अवधि में महिला की ओर से कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई गई.
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने यह कहते हुए आरोपी के खिलाफ चल रही आपराधिक कार्रवाई को समाप्त कर दिया कि इतने लंबे समय तक बिना किसी आपत्ति के चले संबंध को केवल "झूठे विवाह के वादे" के आधार पर जबरन या धोखाधड़ी से युक्त करार नहीं दिया जा सकता.
अदालत ने स्पष्ट किया कि "जब दो वयस्क व्यक्ति दीर्घकाल तक एक लिव-इन रिलेशनशिप में रहते हैं, तो यह मान लिया जाना चाहिए कि शारीरिक संबंध भी परस्पर सहमति के आधार पर ही स्थापित हुए हैं, न कि किसी एक पक्ष के दबाव या प्रलोभन के कारण."
आज की महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में समकालीन सामाजिक यथार्थ को भी ध्यान में रखते हुए टिप्पणी की. कोर्ट ने कहा कि आज की महिलाएं पहले की तुलना में अधिक आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं और अपने जीवन से जुड़े निर्णय लेने में सक्षम हैं. लिव-इन रिलेशनशिप जैसे विकल्प, जो पहले सामाजिक वर्जनाओं से जुड़े माने जाते थे, अब युवा वर्ग, विशेषकर शहरी महिलाओं द्वारा स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के रूप में स्वीकार किए जा रहे हैं.
कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि "ऐसे मामलों में न्यायालय को नैतिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि वास्तविकता की कसौटी पर परख कर यह देखना चाहिए कि संबंधित संबंध किस प्रकार का था, उसकी अवधि क्या थी, और दोनों पक्षों के आचरण में क्या निहित संकेत मिलते हैं."
पूर्व निर्णयों की पुनर्पुष्टि
इस फैसले की दिशा मार्च 2025 में दिए गए एक अन्य फैसले से भी मेल खाती है, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि एक दीर्घकालीन लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही महिला यह दावा नहीं कर सकती कि संबंध केवल शादी के वादे के कारण बनाए गए थे. कोर्ट ने यह रेखांकित किया था कि यदि कोई रिश्ता कई वर्षों तक चला हो और उसमें निरंतर शारीरिक संबंध बने रहे हों, तो यह दलील अविश्वसनीय हो जाती है कि संबंध में दी गई सहमति केवल झूठे वादे पर आधारित थी.
लिव-इन को लेकर भारतीय कानून
हालांकि भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को अब भी विवाह जितना कानूनी दर्जा प्राप्त नहीं है, लेकिन विभिन्न अदालती निर्णयों के माध्यम से यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि दो वयस्क अपनी मर्जी से एक साथ रहते हैं, तो उनके इस संबंध को कुछ परिस्थितियों में विवाह सरीखी मान्यता मिल सकती है – विशेषकर जब दोनों पक्षों के बीच दीर्घकालीन सहजीवन रहा हो.
सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कई बार यह टिप्पणी की है कि लिव-इन रिलेशनशिप "वैध" हैं, और यदि कोई बच्चा इस रिश्ते से जन्म लेता है, तो उसे संपत्ति और अन्य कानूनी अधिकारों की दृष्टि से संरक्षण प्रदान किया जा सकता है.
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