यूक्रेन-रूस संघर्ष अब चौथे साल में प्रवेश कर चुका है, लेकिन हालात अब भी तनावपूर्ण हैं. वैश्विक स्तर पर कूटनीतिक प्रयास तेज हो गए हैं और यूरोप से लेकर अमेरिका तक सभी पक्ष युद्धविराम के रास्ते तलाश रहे हैं. हाल ही में अमेरिका के अलास्का और वॉशिंगटन में हुई अहम बैठकों ने दुनिया का ध्यान खींचा, जहां रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच वार्ता हुई.
इस बैठक के दौरान पुतिन ने यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने के लिए तीन बड़ी शर्तें सामने रखीं, जिन पर अब बहस तेज हो गई है — खासतौर पर तीसरी शर्त को लेकर, जिसे विशेषज्ञ बेहद संवेदनशील और खतरनाक मान रहे हैं.
पुतिन की तीन प्रमुख शर्तें क्या हैं?
रूस की ओर से युद्धविराम के लिए निम्नलिखित तीन प्रमुख मांगें रखी गई हैं:
यूक्रेन को नाटो से दूर रखा जाए. पुतिन ने साफ कर दिया है कि यूक्रेन को नाटो में शामिल नहीं किया जाना चाहिए और ना ही नाटो का विस्तार रूस की ओर हो.डोनबास और क्रीमिया पर अधिकार को मान्यता दी जाए रूस चाहता है कि डोनबास क्षेत्र में उसे क्षेत्रीय लाभ मिले और अंतरराष्ट्रीय समुदाय क्रीमिया को रूसी क्षेत्र के तौर पर स्वीकार करे.
रूसी भाषी नागरिकों को सांस्कृतिक और धार्मिक संरक्षण मिले:
रूस यह भी मांग कर रहा है कि यूक्रेन में रहने वाले रूसी भाषा बोलने वाले लोगों के अधिकारों की गारंटी दी जाए — विशेष रूप से उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया जाए.
तीसरी शर्त क्यों है सबसे अधिक चिंताजनक?
विशेषज्ञों के अनुसार, पुतिन की तीसरी शर्त केवल एक आंतरिक मानवाधिकार मुद्दा नहीं है, बल्कि इसके ज़रिए रूस भविष्य में दूसरे देशों के मामलों में भी हस्तक्षेप का आधार बना सकता है. साल 2014 में क्रीमिया पर रूस के कब्जे की पृष्ठभूमि भी यही थी, जब उसने रूसी भाषी लोगों की सुरक्षा के नाम पर कार्रवाई की थी. आज भी रूस अपने सैन्य हस्तक्षेप को इन्हीं आधारों पर उचित ठहराता है.
यूक्रेन में लगभग 30% आबादी रूसी बोलती है, और 2018 में जब यूक्रेन सरकार ने रूसी भाषा की किताबों, फिल्मों और गानों पर प्रतिबंध लगाया, तब रूस ने इसे 'भेदभाव' बताया था. अब यदि रूस को यूक्रेनी संविधान में हस्तक्षेप का मौका दिया गया, तो यह एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत होगी.
क्या यह सिर्फ यूक्रेन तक सीमित रहेगा?
बिलकुल नहीं. विश्लेषकों का कहना है कि अगर इस मांग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया गया, तो रूस भविष्य में लातविया, एस्टोनिया, कज़ाखस्तान और मोल्दोवा जैसे देशों में भी हस्तक्षेप कर सकता है, जहां रूसी भाषी अल्पसंख्यक समुदाय मौजूद हैं. इस तरह की नीति अमेरिका की मोनरो डॉक्ट्रिन की तरह है, जो एक विशेष प्रभाव क्षेत्र बनाने की रणनीति पर आधारित है. रूस इस सिद्धांत को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर रहा है — अपने पड़ोसी देशों में स्थायी दबाव बनाए रखने के लिए.
आगे क्या? वार्ता की अगली कड़ी का इंतज़ार
वॉशिंगटन में हुई चर्चाओं के बाद अब अगली वार्ता की योजना बन रही है, हालांकि स्थान और तारीख अब तक घोषित नहीं की गई है. यूरोपीय देशों और अमेरिका की कोशिश है कि युद्ध को कूटनीतिक रास्ते से खत्म किया जाए, लेकिन पुतिन की इन शर्तों को मान लेना यूक्रेन के लिए संभावित खतरे की घंटी है.
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