पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हाल ही में हुई रक्षा साझेदारी ने पश्चिम एशिया से लेकर दक्षिण एशिया तक हलचल पैदा कर दी है. इस करार को लेकर दावा किया जा रहा है कि यह नाटो मॉडल से प्रेरित है, जिसमें एक देश पर हमला होने की स्थिति में दूसरा सहयोगी देश भी इसे अपने खिलाफ हमला मानेगा. भारत के लिए यह परिस्थिति असहज करने वाली है, क्योंकि इसमें एक ओर उसका रणनीतिक साझेदार सऊदी है, और दूसरी ओर चिर-प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान.
इस डील के बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट कर दिया है कि वे हालात पर बारीकी से नजर रखे हुए हैं. हालांकि जानकार मानते हैं कि यह समझौता दिखने में जितना बड़ा लगता है, उसका असर उतना गंभीर नहीं होगा. इसकी एक वजह यह भी है कि सऊदी और भारत के रिश्ते बीते वर्षों में बेहद मजबूत हुए हैं. चाहे वह रणनीतिक क्षेत्र हो या व्यापारिक.
पाकिस्तान और सऊदी की सैन्य ताकत में अंतर कितना?
फायर पावर इंडेक्स की बात करें तो दोनों देशों की सैन्य क्षमता में बड़ा फर्क है. भारत जहां इस इंडेक्स में दुनिया की चौथी सबसे बड़ी ताकत है, वहीं पाकिस्तान 12वें और सऊदी अरब 24वें स्थान पर है.
बिंदु पाकिस्तान सऊदी अरब
इन आंकड़ों से साफ है कि पाकिस्तान सैन्य बल और संसाधनों के मामले में कई क्षेत्रों में आगे है, लेकिन सऊदी अरब के पास आर्थिक ताकत है, जो उसे हथियारों और तकनीक के लिए वैश्विक बाजार से तुरंत जुड़ने की क्षमता देती है.
डिफेंस डील की टाइमिंग और मंशा क्या बताती है?
इस समझौते की टाइमिंग पर गौर करें तो यह 9 सितंबर के उस घटनाक्रम के बाद आया, जब कतर पर इजरायल ने हमला किया. इस अप्रत्याशित हमले ने पूरे खाड़ी क्षेत्र में खतरे की घंटी बजा दी. अमेरिका की भूमिका और विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे, खासकर सऊदी अरब जैसे देशों की नजर में. विश्लेषकों का मानना है कि इस डील के जरिए सऊदी अरब अब अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहना चाहता. पाकिस्तान को साथ लाकर वह एक "न्यूक्लियर छतरी" के नीचे आने की कोशिश कर रहा है.
पाकिस्तान: सिर्फ 'भाड़े के सैनिकों' का सप्लायर?
विदेश मामलों के जानकार जहाक तनवीर के अनुसार, यह पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच ऐसा कोई समझौता हुआ हो. 1980 के दशक में ईरान-इराक युद्ध के दौरान भी पाकिस्तान ने रियाद को सुरक्षा का आश्वासन दिया था. लेकिन, ये अधिकतर राजनीतिक वादे रहे हैं, कानूनी संधि नहीं. इतिहास गवाह है कि जब पाकिस्तान भारत के साथ युद्धों में उलझा (1965, 1971, 1999), तब सऊदी अरब ने केवल राजनयिक और आर्थिक समर्थन दिया, सीधा सैन्य सहयोग कभी नहीं किया.
एक्सपर्ट्स मानते हैं कि पाकिस्तान इस डील के तहत सऊदी हितों की रक्षा के लिए अपने सैनिक भेज सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सऊदी अरब भारत के खिलाफ कभी सैन्य कार्रवाई करेगा. रियाद की भारत के साथ मजबूत आर्थिक और रणनीतिक साझेदारी है, जिसे वह पाकिस्तान के कहने पर खतरे में नहीं डालेगा.
क्या भारत को सतर्क रहने की ज़रूरत है?
बिलकुल. भारत को अपने पड़ोसी पाकिस्तान की नई सैन्य चालों पर नजर रखनी ही चाहिए. लेकिन साथ ही यह समझना भी ज़रूरी है कि यह डील सऊदी की सुरक्षा चिंताओं से प्रेरित है, न कि भारत के खिलाफ कोई आक्रामक योजना.
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