नई दिल्ली: क्या वैश्विक मंच पर एक बड़ा टकराव दस्तक दे रहा है? NATO महासचिव मार्क रूटे की हालिया टिप्पणी ने इस आशंका को और बल दे दिया है. उनका मानना है कि यदि चीन ताइवान पर हमला करता है, तो उससे पहले रूस किसी NATO सदस्य देश को निशाना बनाकर यूरोप को संकट में डाल सकता है—ताकि अमेरिका और पश्चिमी गठबंधन एक साथ दो दिशाओं में फंस जाएं.
रूटे ने New York Times को दिए इंटरव्यू में यह परिदृश्य साझा किया, जो इस समय ब्रुसेल्स में चल रही NATO समिट के सबसे गंभीर सुरों में से एक था. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “अगर शी जिनपिंग ताइवान पर सैन्य कार्रवाई की योजना बनाते हैं, तो संभव है कि वे पुतिन को पहले यह कहें—‘तुम यूरोप को उलझाओ, मैं ताइवान की तरफ बढ़ता हूं.’”
रूस-चीन: एक साथ दो मोर्चों की चेतावनी
रूस और चीन दोनों लंबे समय से पश्चिमी सैन्य प्रभाव को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं. चीन, ताइवान को अपना हिस्सा मानता है और शी जिनपिंग साफ कर चुके हैं कि वह “पुनर्मिलन” किसी भी कीमत पर कराएंगे—चाहे वह कूटनीति से हो या सैन्य बल से. वहीं, पुतिन यूक्रेन युद्ध के बाद बार-बार यह संकेत दे चुके हैं कि वे NATO की पूर्वी सीमाओं तक फिर से रूस का प्रभाव देखना चाहते हैं.
NATO की आशंका है कि अगर ये दोनों शक्तियां समन्वय के साथ कदम उठाती हैं, तो अमेरिका और सहयोगी देशों के लिए एक साथ एशिया और यूरोप में संकट से निपटना बेहद कठिन हो जाएगा.
NATO की रणनीति: ताकत और सहयोग
रूटे का कहना है कि इससे बचने के लिए दो काम ज़रूरी हैं—NATO को इतना सशक्त बनाना कि रूस हमले की सोचे भी नहीं, और Indo-Pacific देशों के साथ मजबूत रणनीतिक साझेदारी तैयार करना. उन्होंने कहा कि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी Indo-Pacific सहयोग को गंभीरता से लिया था और उनकी विदेश नीति टीम—जिसमें मार्को रुबियो और पीट हेगसेथ जैसे नाम शामिल हैं—इस दिशा में कुशल मानी जाती है.
क्या 'ट्रंप' फिर से जिम्मेदारी उठाएंगे?
रूटे की एक पुरानी टिप्पणी, जिसमें उन्होंने ट्रंप को मजाकिया लहजे में ‘डैडी’ कहा था, फिर चर्चा में है. उस समय ट्रंप ने इज़रायल-ईरान तनाव को कम करने में अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन इस बार चुनौती कहीं अधिक गंभीर है—अगर चीन और रूस वाकई साझा मोर्चा खोलते हैं, तो क्या ट्रंप जैसे नेता दुनिया को दोहरे युद्ध से बचा पाएंगे?
अब जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव करीब हैं और ट्रंप की वापसी की संभावना चर्चा में है, तो यह सवाल भी अहम है: क्या अमेरिका दो मोर्चों की रणनीतिक चुनौती से निपटने को तैयार है? और अगर नहीं, तो ‘पश्चिमी नेतृत्व’ का भविष्य किस दिशा में जाएगा?
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