Iran and Israel War: मध्य पूर्व में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई के बाद ईरान एक बार फिर राजनयिक रूप से अलग-थलग पड़ता नजर आ रहा है. ऐसे समय में जब उम्मीद थी कि उसका प्रमुख सहयोगी चीन उसके साथ मजबूती से खड़ा होगा, बीजिंग ने साफ दूरी बना ली है. हालांकि चीन ने अमेरिका के हमले की आलोचना जरूर की है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया न तो आक्रामक रही और न ही निर्णायक. विश्लेषकों का मानना है कि बीजिंग का यह रवैया महज राजनयिक औपचारिकता है. एक ऐसा रुख जो उसके आर्थिक और भू-राजनीतिक स्वार्थ से संचालित है.
आलोचना भर, समर्थन नहीं
ईरान की परमाणु साइट्स पर अमेरिकी हमलों के बाद चीन ने संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे को उठाते हुए कहा कि “अमेरिका ने वैश्विक परमाणु अप्रसार तंत्र को कमजोर किया है”. साथ ही, बीजिंग ने क्षेत्रीय अस्थिरता पर चिंता जताई. लेकिन इसके बावजूद, किसी भी ठोस सैन्य या कूटनीतिक हस्तक्षेप से चीन ने खुद को दूर रखा. विशेषज्ञों की राय में, "चीन ने कड़े शब्दों का प्रयोग किया, पर किसी कार्रवाई का संकेत नहीं दिया. यह उसकी 'मौखिक नीति' का परिचायक है."
गहराई तो है, लेकिन साहस नहीं
ईरान और चीन के बीच लंबे समय से आर्थिक और सामरिक सहयोग चलता रहा है. चीन, ईरान से तेल का प्रमुख आयातक है और दोनों देश साझा सैन्य अभ्यास भी कर चुके हैं. इसके बावजूद, चीन ने ईरान के समर्थन में कोई स्पष्ट रणनीतिक कदम नहीं उठाया. बीजिंग की ओर से केवल यह प्रस्ताव आया कि वह मध्यस्थता करने को तैयार है, जो कि अधिकतर छवि सुधारने की कवायद प्रतीत होती है.
‘दो नावों’ की सवारी
विश्लेषकों का मानना है कि चीन की नीति “संतुलन बनाए रखने की मजबूरी” पर आधारित है. वह न तो ईरान को नाराज़ करना चाहता है, जिससे उसकी ऊर्जा आपूर्ति प्रभावित हो सकती है, और न ही अमेरिका से सीधा टकराव मोल लेना चाहता है, जिससे उसके व्यापारिक और तकनीकी हितों को नुकसान पहुंच सकता है. इस वजह से चीन ने ऐसी कूटनीति अपनाई है, जिसमें वह दोनों पक्षों से संबंध बनाए रख सके और खुद को निष्पक्ष वैश्विक शक्ति के रूप में दिखा सके.
यह पहली बार नहीं है . यह चीन की पुरानी रणनीति का हिस्सा है. रूस-यूक्रेन युद्ध में भी चीन ने तटस्थ रुख अपनाया, और खुले समर्थन से बचता रहा. उत्तर कोरिया के मिसाइल परीक्षणों पर भी बीजिंग ने संयमित बयानबाजी की. ईरान संकट में भी उसका रुख वैसा ही है: जिम्मेदार वैश्विक शक्ति बनने की कोशिश, लेकिन जोखिम उठाने से इनकार.
चीन की नीति पर उठते सवाल
हालांकि इस रणनीति के दूरगामी परिणामों को लेकर सवाल उठने लगे हैं. अगर चीन बार-बार अपने सहयोगी देशों का सिर्फ ‘नाम भर का समर्थन’ करता रहेगा, तो मध्य पूर्व और एशिया में उसका राजनीतिक प्रभाव कमजोर हो सकता है. वहीं, अमेरिका के साथ व्यापारिक तनाव गहराने से उसकी आर्थिक स्थिरता पर भी असर पड़ सकता है. राजनयिक हलकों में यह चर्चा तेज है कि चीन की यह स्वार्थ आधारित और जोखिम-टालू विदेश नीति एक तरफ उसकी साख को चोट पहुंचा रही है, और दूसरी तरफ वैश्विक संकटों में उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगा रही है.
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