नई दिल्ली: भारत ने उर्वरक क्षेत्र में एक ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की है. सात साल की कड़ी मेहनत और शोध के बाद देश के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है जो पानी में घुलनशील (वॉटर-सॉल्युबल) उर्वरकों के घरेलू उत्पादन को संभव बनाएगी. यह तकनीक न केवल भारत को आत्मनिर्भर बना सकती है, बल्कि उर्वरक के वैश्विक बाजार में भी भारत को एक मजबूत निर्यातक देश के रूप में स्थापित करने की क्षमता रखती है.
यह सफलता ऐसे समय आई है जब चीन अक्टूबर 2025 से अपने विशेष उर्वरकों के निर्यात पर फिर से प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर रहा है. इससे वैश्विक और भारतीय बाजार में उर्वरकों की कीमतों में उछाल की आशंका है. ऐसे में भारत की यह तकनीकी उपलब्धि गेमचेंजर साबित हो सकती है.
घुलनशील उर्वरक क्या होते हैं और क्यों हैं महत्वपूर्ण?
पानी में घुलनशील उर्वरक (Water-Soluble Fertilizers - WSF) वे उर्वरक होते हैं जिन्हें सिंचाई के पानी में मिलाकर सीधे फसल की जड़ों तक पहुँचाया जा सकता है. यह तकनीक "फर्टिगेशन" के तहत आती है, जो पारंपरिक उर्वरकों की तुलना में अधिक प्रभावी और पर्यावरण के लिए अनुकूल मानी जाती है.
इस तरह के उर्वरक किसानों को बेहतर उत्पादकता, कम लागत और न्यूनतम अपव्यय का लाभ देते हैं. यही कारण है कि इनकी मांग वैश्विक स्तर पर लगातार बढ़ रही है.
7 साल की मेहनत से मिली सफलता
इस परियोजना की अगुवाई घुलनशील उर्वरक उद्योग संघ (SFIA) के अध्यक्ष राजीव चक्रवर्ती ने की. उन्होंने बताया कि इस तकनीक को विकसित करने में सात वर्ष लग गए. यह प्रक्रिया आसान नहीं थी—कई बार असफलता मिली, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. उनके अनुसार, "R&D का मतलब है हजार बार असफल होना और एक बार सफलता हासिल करना."
इस दौरान उन्होंने व्यक्तिगत और व्यावसायिक स्तर पर भी बड़ा जोखिम उठाया. तकनीक के विकास पर इतना ध्यान देने के कारण उनका व्यवसाय भी प्रभावित हुआ, लेकिन आज वह इस सफलता को देश के लिए समर्पित मानते हैं.
भारत की चीन पर निर्भरता और उसका अंत
वर्तमान में भारत अपनी जरूरत का लगभग 95% विशेष उर्वरक चीन से आयात करता है. यह स्थिति 2005 से लगातार बनी हुई है, जब यूरोपीय देशों ने चीन से उर्वरक खरीदना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे चीन इस क्षेत्र में सबसे बड़ा खिलाड़ी बन गया. भारत को इसका सीधा प्रभाव तब महसूस होता है जब चीन अपने निर्यात पर रोक लगाता है.
राजीव चक्रवर्ती की मानें तो, यह तकनीक भारत को इस आयात पर निर्भरता से छुटकारा दिला सकती है. उनका उद्देश्य है कि भारत न केवल आत्मनिर्भर बने, बल्कि एक निर्यातक देश के रूप में उभरे.
इस तकनीक की क्या खासियत है?
यह तकनीक अन्य मौजूदा तरीकों से कई मायनों में बेहतर है:
एक प्रक्रिया, अनेक उत्पाद: सामान्यतः अलग-अलग प्रकार के उर्वरकों के लिए अलग तकनीक की आवश्यकता होती है. लेकिन इस नई तकनीक के जरिये सभी तरह के घुलनशील उर्वरकों का उत्पादन एक ही प्रक्रिया में किया जा सकता है. यह क्रांति जैसा बदलाव है.
शून्य अपशिष्ट उत्पादन (Zero Waste Process): यह तकनीक पूरी तरह से पर्यावरण-अनुकूल है. इसमें किसी प्रकार का अपशिष्ट उत्पन्न नहीं होता, और न ही जल, वायु या भूमि प्रदूषण का खतरा होता है.
स्थानीय तकनीक: अब तक भारत उधार ली गई विदेशी तकनीकों पर निर्भर रहा है, जिनके लिए हर बार अपडेट के साथ अतिरिक्त कीमत चुकानी पड़ती थी. लेकिन अब यह देश में ही विकसित तकनीक है, जिसे भारतीय परिस्थितियों के अनुसार बदला और सुधारा जा सकता है.
सरकार का समर्थन और अगला कदम
सरकार ने इस तकनीक को राष्ट्रीय महत्व की परियोजना मानते हुए समर्थन दिया है. खान मंत्रालय के सहयोग से एक पायलट प्लांट स्थापित किया गया है. अब यह योजना है कि आने वाले दो वर्षों में इसका व्यावसायिक उत्पादन शुरू कर दिया जाए.
राजीव चक्रवर्ती का कहना है कि, “दो साल के भीतर यह उर्वरक बड़े पैमाने पर किसानों तक पहुंचने लगेगा. इसके बाद हम विशेष उर्वरकों में पूरी तरह आत्मनिर्भर बन सकते हैं.”
इस परियोजना में कई बड़ी उर्वरक कंपनियों की रुचि भी देखने को मिली है, जो इस तकनीक के जरिये उत्पादन करना चाहती हैं.
चीन का संभावित प्रतिबंध और भारत की तैयारी
उधर चीन ने संकेत दिए हैं कि वह अक्टूबर 2025 से विशेष उर्वरकों के निर्यात पर फिर से प्रतिबंध लगाने जा रहा है. इससे वैश्विक सप्लाई चेन पर दबाव बढ़ेगा और भारत में कीमतें बढ़ सकती हैं.
चीन पहले भी इसी तरह की नीति अपनाकर दुनिया भर में उर्वरकों की कीमतों को प्रभावित कर चुका है. चीनी कंपनियां निर्यात में देरी करके और अतिरिक्त निरीक्षण लगाकर सप्लाई को धीमा कर देती हैं.
राजीव चक्रवर्ती के अनुसार, यह समय भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. यदि भारत इस मौके को भुना लेता है तो वह वैश्विक बाजार में एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता बन सकता है.
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