न ब्रह्मोस, न राफेल, वॉरशिप... फिर भी 57000 की करोड़ डील करेगा भारत, इन दो खतरनाक हथियारों पर है नजर

    21वीं सदी की भू-राजनीतिक परिस्थितियों ने यह साफ कर दिया है कि अब युद्ध केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि आधुनिक वैश्विक व्यवस्था की सच्चाई बन चुका है.

    India can buy these two dangerous fighter jets
    प्रतिकात्मक तस्वीर/ Internet

    नई दिल्ली: 21वीं सदी की भू-राजनीतिक परिस्थितियों ने यह साफ कर दिया है कि अब युद्ध केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि आधुनिक वैश्विक व्यवस्था की सच्चाई बन चुका है. रूस-यूक्रेन युद्ध, इज़रायल-गाजा संघर्ष, ईरान-इज़रायल टकराव और अब थाईलैंड-कंबोडिया के बीच उभरती सैन्य झड़पें—इन सभी घटनाओं ने यह दिखा दिया है कि देशों के लिए अपनी सैन्य ताकत को लगातार अपग्रेड करना अब विकल्प नहीं, अनिवार्यता बन गया है.

    भारत ने इस दिशा में बीते वर्षों में उल्लेखनीय कदम उठाए हैं. चाहे ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल हो, अग्नि-5 अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल, या हाल ही में सफलतापूर्वक परीक्षण की गई आकाश-प्राइम और हाइपरसोनिक मिसाइलें—हर एक पहल ने भारतीय सशस्त्र बलों की क्षमता को नए आयाम दिए हैं. राफेल फाइटर जेट की खरीद ने भारतीय वायुसेना की हवाई ताकत को मजबूत किया है, जबकि रूस से लिए गए S-400 ट्रायम्फ एयर डिफेंस सिस्टम ने एयरस्पेस सुरक्षा की नई परिभाषा दी है.

    अब इसी श्रृंखला में भारत एक और बड़ा फैसला लेने की तैयारी कर रहा है. एक ऐसा फैसला, जो न केवल भारतीय वायुसेना की कमियों को भरने में मदद करेगा, बल्कि भविष्य के लिए एक ठोस सामरिक आधार भी तैयार करेगा.

    5वीं पीढ़ी के फाइटर जेट की दिशा में कदम

    ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय वायुसेना ने अपनी ताकत का लोहा दुनिया को मनवाया. लेकिन इसी दौरान कुछ तकनीकी और सामरिक खामियाँ भी सामने आईं—खासतौर पर यह महसूस किया गया कि भारतीय वायुसेना के पास अब तक 5वीं पीढ़ी के फाइटर जेट नहीं हैं. जबकि चीन न केवल अपने लिए J-20 और J-35 जैसे फाइटर जेट बना चुका है, बल्कि पाकिस्तान को भी J-35 देने की योजना में है. ऐसे में दक्षिण एशिया का सैन्य संतुलन भारत के खिलाफ झुक सकता है—और भारत यह जोखिम लेने को कतई तैयार नहीं.

    भारतीय वायुसेना ने इस कमी को भरने के लिए तत्काल प्रभाव से 5वीं पीढ़ी के फाइटर जेट की खरीद की सिफारिश की है. वायुसेना के प्रस्ताव के मुताबिक भारत को दो से तीन स्क्वाड्रन यानी 40 से 60 फाइटर जेट्स खरीदने चाहिए, ताकि AMCA (Advanced Medium Combat Aircraft) प्रोजेक्ट के शुरू होने तक की खाई को भरा जा सके.

    इस प्रस्ताव को रक्षा मंत्रालय ने प्राथमिकता पर लिया है और डिफेंस सेक्रेटरी आर. के. सिंह ने भी इसका समर्थन किया है.

    कौन सा फाइटर जेट भारत के लिए सही?

    भारत के सामने दो प्रमुख विकल्प हैं—अमेरिका का F-35 लाइटनिंग II और रूस का सुखोई Su-57 फेलॉन. दोनों ही फाइटर जेट्स अपने-अपने ढंग से बेहद आधुनिक, स्टील्थ क्षमता से लैस और मल्टी-रोल मिशनों के लिए उपयुक्त हैं.

    1. अमेरिकी F-35A लाइटनिंग II

    • निर्माता: लॉकहीड मार्टिन (Lockheed Martin)
    • इंजन: सिंगल इंजन
    • विशेषता: हाई स्टील्थ, नेटवर्क-केंद्रित वॉरफेयर, सेंसर फ्यूजन
    • स्पीड: मैक 1.6
    • रेंज: 1,500 नॉटिकल मील
    • कीमत: एक यूनिट की लागत लगभग $100–110 मिलियन
    • भारत के लिए संभावित कुल लागत: ₹38,000 करोड़ से ₹57,000 करोड़ (40 से 60 विमानों के लिए)

    2. रूसी Su-57E फेलॉन

    • निर्माता: सुखोई डिजाइन ब्यूरो (Sukhoi Design Bureau)
    • इंजन: ट्विन इंजन
    • विशेषता: सुपर मैन्युवरेबिलिटी, स्टील्थ डिजाइन, भारी पेलोड क्षमता
    • स्पीड: मैक 2
    • रेंज: लगभग 1,500 किमी
    • पेलोड क्षमता: 10 टन तक
    • कीमत: एक यूनिट की लागत करीब $80 मिलियन
    • भारत के लिए संभावित कुल लागत: ₹27,000 करोड़ से ₹41,000 करोड़

    रूसी विमान की सबसे बड़ी खासियत यह है कि रूस ने भारत को टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और सोर्स कोड शेयर करने का प्रस्ताव भी दिया है—जो भारत के लिए लंबे समय में रक्षा आत्मनिर्भरता की दृष्टि से बेहद अहम हो सकता है.

    क्या AMCA पर भरोसा काफी है?

    भारत ने घरेलू स्तर पर 5वीं पीढ़ी के फाइटर जेट के विकास के लिए AMCA प्रोजेक्ट की शुरुआत कर दी है. इस विमान में स्टील्थ तकनीक, एआई-बेस्ड सिस्टम, इंटरनल वेपन बे और एडवांस एवियोनिक्स जैसी क्षमताएं होंगी. लेकिन इसके पूरी तरह ऑपरेशनल होने में अभी 5 से 7 साल का वक्त लगेगा. AMCA की फुल स्केल प्रोडक्शन और डिलिवरी 2030 के बाद ही संभव हो सकेगी.

    ऐसे में, जब तक यह प्रोजेक्ट मूर्त रूप लेता है, भारत को मौजूदा खतरे से निपटने के लिए विदेशी फाइटर जेट्स की आवश्यकता है.

    बड़ी डील, बड़ा असर

    यदि भारत 40 से 60 फाइटर जेट्स की खरीद पर आगे बढ़ता है, तो यह डील ₹57,000 करोड़ तक की हो सकती है. यह डील सिर्फ सैन्य संतुलन को स्थिर करने भर की नहीं होगी, बल्कि भारत की रणनीतिक सोच, वैश्विक सैन्य साझेदारियों और रक्षा उत्पादन नीति की दिशा को भी दर्शाएगी.

    यह डील यह भी तय करेगी कि भारत अमेरिका के साथ अपने रणनीतिक संबंधों को और गहराता है, या रूस के साथ लंबे समय से चली आ रही रक्षा साझेदारी को नए आयाम देता है. अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग में पारदर्शिता और टेक्नोलॉजी में बढ़त है, वहीं रूस लागत, लचीलापन और ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी जैसी शर्तों में ज्यादा अनुकूल नजर आता है.

    भविष्य की राह: सिर्फ खरीद नहीं, निर्माण भी

    भारत की रक्षा नीति अब सिर्फ आयात पर केंद्रित नहीं है. मेक इन इंडिया, डिफेंस एक्सपोर्ट्स, और टेक्नोलॉजी को-डेवलपमेंट जैसे पहलों के जरिए भारत आने वाले वर्षों में रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है. अगर रूस या अमेरिका से मिलने वाली टेक्नोलॉजी को सही ढंग से स्थानीय उद्योगों में समाहित किया गया, तो यह भारत के स्वदेशी प्रोजेक्ट्स को भी मजबूती दे सकता है.

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