नई दिल्ली: एक समय था जब बारिश का मतलब होता था कई दिनों तक भीगती धरती, हरियाली की महक, और वो रिमझिम फुहारें जो लगातार पड़ती रहती थीं. सूरज मानो छुट्टी पर चला जाता था – एक-एक हफ्ते तक बादल छाए रहते थे. गांवों में कामकाज थम जाते, बच्चे कागज़ की नावें बहाते, और खेतों की मिट्टी से सोंधी खुशबू आती.
लेकिन अब? अब बारिश आती है, गरजती है, बरसती है और चली जाती है – कुछ घंटों में ही बाढ़ जैसे हालात बना कर. लगातार कई दिनों तक बादलों की चादर और हल्की बारिश का वो सिलसिला अब बीते जमाने की बात लगने लगा है.
क्या पहले सच में लगातार कई दिन बारिश होती थी?
बिलकुल. 1950 से 1980 के बीच, भारत के कई इलाकों में जून से सितंबर के बीच मानसून ऐसा होता था कि कई बार 7 से 10 दिन लगातार हल्की से मध्यम बारिश होती रहती थी. खासकर:
गांधीजी की आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" में भी यह जिक्र है कि उनकी मां चतुर्मास के दौरान तब तक भोजन नहीं करती थीं जब तक सूरज के दर्शन न हों – और ऐसे दिन दो-तीन दिन तक खिंच जाते थे.
अब क्यों नहीं होती वैसी बारिश?
अब मौसम का मिजाज बदल चुका है. भारत समेत पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन (Climate Change) की वजह से बारिश के पैटर्न में बड़ा बदलाव आया है:
तापमान में बढ़ोतरी
ग्लोबल वॉर्मिंग ने वातावरण को गर्म कर दिया है. गर्म हवा ज्यादा नमी पकड़ती है, जिससे अब अचानक तेज बारिश होती है – लेकिन हल्की और लगातार बारिश के दिन कम हो गए हैं.
एल नीनो और ला नीना का असर
प्रशांत महासागर में होने वाली ये घटनाएं अब भारतीय मानसून को पहले से ज्यादा प्रभावित कर रही हैं. मानसून की चाल अनिश्चित हो गई है – कभी समय से पहले, तो कभी बहुत देर से.
तेज बारिश, लेकिन कुल बारिश कम
अब 1-2 दिन में ही महीनों की बारिश हो जाती है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है. लेकिन पूरे सीजन में कुल बारिश के दिन और पानी की मात्रा में गिरावट दर्ज की गई है.
प्रदूषण और एरोसोल
शहरों में धूल, धुआं और प्रदूषक बादल बनने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं. इससे बादल जल्दी नहीं बरसते, या कभी ज्यादा भारी हो जाते हैं.
शहरीकरण और जंगलों की कटाई
पेड़-पौधे व बारिश के बीच गहरा रिश्ता है. हरियाली कम होने से स्थानीय वर्षा-चक्र टूट गया है. अब हवा में नमी का संतुलन नहीं बन पाता.
रिमझिम और फुहारें कहां गईं?
आईएमडी (भारत मौसम विभाग) के एक अध्ययन (1951–2015) के अनुसार, हल्की बारिश वाले दिनों में 10-15% की गिरावट देखी गई है, जबकि भारी बारिश की घटनाएं 20-30% तक बढ़ी हैं.
क्या अब वो पुराने दिन लौटेंगे?
मौजूदा रुझानों को देखकर तो यही लगता है कि अगर हमने पर्यावरण को लेकर अपने व्यवहार में बदलाव नहीं किया, तो वो पुराने दिन सिर्फ किताबों, कहानियों और बुजुर्गों की यादों में ही रह जाएंगे.
लेकिन उम्मीद बाकी है – हरियाली बढ़ाकर, प्रदूषण घटाकर और जलवायु संरक्षण की दिशा में कदम उठाकर हम फिर से मौसम के उस संतुलन की ओर लौट सकते हैं, जहां बारिश न सिर्फ जीवन देती है, बल्कि सुकून भी.
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