सुप्रीम कोर्ट से IMA को बड़ा झटका, पतंजलि के खिलाफ भ्रामक विज्ञापनों का मामला किया बंद

    भारत में आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा के बीच जारी बहस ने एक बार फिर अदालत का दरवाजा खटखटाया, लेकिन इस बार फैसला पतंजलि आयुर्वेद के पक्ष में आया है.

    Case against Patanjali for misleading advertisements closed
    प्रतिकात्मक तस्वीर/ ANI

    भारत में आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा के बीच जारी बहस ने एक बार फिर अदालत का दरवाजा खटखटाया, लेकिन इस बार फैसला पतंजलि आयुर्वेद के पक्ष में आया है. सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय चिकित्सा संघ (IMA) की उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें पतंजलि पर भ्रामक विज्ञापन देने और एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति को बदनाम करने का आरोप लगाया गया था. कोर्ट के इस फैसले को न केवल पतंजलि के लिए बल्कि पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को मानने वालों के लिए भी एक बड़ी राहत के तौर पर देखा जा रहा है.

    IMA बनाम पतंजलि: कहां से शुरू हुआ विवाद?

    इस विवाद की जड़ें पतंजलि आयुर्वेद के उन विज्ञापनों में हैं, जिनमें कंपनी ने अपने उत्पादों को गंभीर बीमारियों के इलाज में प्रभावी बताया था. इन दावों के साथ-साथ विज्ञापनों में एलोपैथी पद्धति की आलोचना भी देखने को मिली, जिससे भारतीय चिकित्सा संघ (IMA) ने आपत्ति जताई.

    IMA का कहना था कि पतंजलि के विज्ञापनों ने न केवल आधुनिक चिकित्सा प्रणाली का अपमान किया बल्कि मरीजों को भ्रमित भी किया. इसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और मांग की कि पतंजलि पर कड़ी कार्रवाई की जाए.

    केंद्र सरकार के नियमों में बदलाव और अदालत की भूमिका

    इस पूरे मामले का एक बड़ा पहलू 1 जुलाई 2024 को सामने आया, जब केंद्र सरकार के अधीन आयुष मंत्रालय ने औषधि एवं प्रसाधन सामग्री नियम, 1945 में एक अहम संशोधन किया. इस संशोधन से पहले, कोई भी आयुर्वेदिक, सिद्ध या यूनानी दवा कंपनी अपने उत्पादों का विज्ञापन तभी कर सकती थी जब उसे राज्य सरकार के लाइसेंसिंग अधिकारियों से पूर्व अनुमोदन मिल जाए.

    इस व्यवस्था का उद्देश्य यह था कि कंपनियां अपने उत्पादों के बारे में झूठे या अतिरंजित दावे न करें. लेकिन जुलाई 2024 में हुए संशोधन के बाद यह अनिवार्यता समाप्त कर दी गई और कंपनियों को सीधे तौर पर विज्ञापन करने की छूट मिल गई.

    नियम पर अंतरिम रोक और फिर याचिका खारिज

    जब यह मामला अगस्त 2024 में सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंचा, तो न्यायमूर्ति हिमा कोहली और संदीप मेहता की पीठ ने इस संशोधन पर अस्थायी रोक लगा दी. उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक मामले की पूरी सुनवाई नहीं हो जाती, तब तक कंपनियों को विज्ञापन से पहले अनुमोदन लेना अनिवार्य रहेगा.

    हालांकि, जब मामला आगे बढ़ा और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की पीठ के पास आया, तब उन्होंने इस संशोधन के कानूनी पहलुओं पर गहराई से विचार किया. न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने सवाल उठाया कि अगर केंद्र सरकार ने खुद ही किसी नियम को खत्म कर दिया है, तो फिर राज्य सरकार कैसे उसे लागू कर सकती है?

    न्यायमूर्ति नागरत्ना ने स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट नीतिगत निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, खासकर तब जब केंद्र सरकार किसी नियम को हटाने का निर्णय ले चुकी हो. इसके बाद अदालत ने मामले को बंद करने का सुझाव दिया और अंततः IMA की याचिका को खारिज कर दिया.

    भ्रामक विज्ञापन और बाबा रामदेव की माफी

    इस मामले की गूंज पहले भी सुप्रीम कोर्ट में सुनाई दी थी, जब बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण को व्यक्तिगत रूप से नोटिस भेजा गया था. अदालत ने पतंजलि को कई बार चेतावनी दी थी कि वह ऐसे भ्रामक विज्ञापन न चलाएं, जो लोगों को गुमराह करें या एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति का मजाक उड़ाएं.

    इस दौरान पतंजलि की ओर से अदालत में लिखित माफीनामा भी दायर किया गया था और अदालत ने कुछ समय तक अवमानना की कार्यवाही भी चलाई, जिसे बाद में बंद कर दिया गया. लेकिन यह साफ था कि अदालत इस तरह के मामलों में गंभीर है और जनता के स्वास्थ्य से जुड़ी हर चीज पर पैनी नजर रखे हुए है.

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