अरब सागर की लहरों के नीचे, एक अदृश्य संघर्ष की बिसात बिछ चुकी है. यहां जीत सिर्फ तोपों और टॉरपीडो से नहीं, बल्कि उस मौन निगरानी से तय होती है जो दुश्मन के कदमों को पानी में उतरने से पहले ही थाम ले. जून 2025 में जब भारतीय नौसेना ने आईएनएस अर्णाला पर तिरंगा फहराया, यह महज़ परंपरा निभाने का क्षण नहीं था, बल्कि भारत की पनडुब्बी-रोधी क्षमता में एक और मजबूत कड़ी जुड़ने का संकेत था.
यह नया एंटी-सबमरीन वॉरफेयर शैलो वॉटर क्राफ्ट (ASW-SWC) एक ऐसे जाल का हिस्सा है जो जहाज़ों, विमानों और सेंसरों के ज़रिए दुश्मन की पनडुब्बियों को उनकी सीमा में प्रवेश करने से पहले ही पकड़ने के लिए तैयार है.
गहराई से चौकसी तक
पिछले एक दशक में यह सुरक्षा जाल महाद्वीपीय शेल्फ़ से लेकर अरब सागर के दूरवर्ती हिस्सों तक फैल चुका है. यह कोई संयोग नहीं कि पाकिस्तान का पनडुब्बी बेड़ा, चीनी निर्मित हैंगोर श्रेणी के साथ, विस्तार की ओर बढ़ रहा है, और उसी समय भारत ने अपने जलसीमा में निगरानी के स्तर को और घना बना दिया है. आईएनएस अर्णाला का आगमन उस सतही बेड़े को और मजबूत करता है जिसमें पहले से कमोर्टा-श्रेणी के कॉर्वेट, बड़े विध्वंसक और स्वदेशी HUMSA-श्रृंखला के सेंसरों से लैस फ़्रिगेट शामिल हैं.
हवाई मोर्चे पर भी भारत ने धार तेज कर रखी है. P-8I पोसाइडन विमान सैकड़ों किलोमीटर दूर तक समुद्र की तलाशी लेते हैं, जबकि एमएच-60आर सीहॉक हेलीकॉप्टर डिपिंग सोनार और हल्के टॉरपीडो के साथ शिकार पर निकलते हैं. कराची और ओरमारा जैसे उथले समुद्री मार्ग, जो पाकिस्तानी पनडुब्बियों के लिए अनिवार्य निकास हैं, स्थायी निगरानी क्षेत्रों में बदल रहे हैं. यहां पर उथले जल में चलने वाले ASW जहाज़, समुद्री तल पर बिछे सेंसर और हवाई गश्त एक साथ काम करते हैं. इस माहौल में किसी भी पनडुब्बी कमांडर के लिए पहला संघर्ष सिर्फ़ बंदरगाह से अनदेखा निकलना होता है.
पड़ोस से सबक
चीन की पनडुब्बी कूटनीति ने क्षेत्र में मिले-जुले नतीजे दिए हैं. बांग्लादेश को 2016–17 में जो दो पुरानी मिंग-श्रेणी की पनडुब्बियां मिलीं, वे सस्ती तो थीं, लेकिन उन्हें चालू रखने के लिए एक अरब डॉलर का बेस बनाना पड़ा. बिना एयर-इंडिपेंडेंट प्रोपल्शन और पुराने सोनार के कारण वे ज़्यादा समय समुद्र में नहीं बितातीं और मुख्यतः प्रशिक्षण के काम आती हैं. म्यांमार को 2021 में मिली एकल चीनी मिंग-श्रेणी पनडुब्बी भी शायद ही कभी तट से दूर अभ्यास करती है. दोनों देशों के बेड़े काग़ज़ी तौर पर उपयोगी हैं, पर चुनौतीपूर्ण जलक्षेत्र में उनके पास न तो पर्याप्त छिपाव है, न लंबी दूरी तक टिके रहने की क्षमता.
हैंगोर पर दांव
पाकिस्तान को उम्मीद है कि हैंगोर-श्रेणी, जो चीन की युआन डिज़ाइन पर आधारित है, इन कमजोरियों से बच जाएगी. आठ पनडुब्बियों की योजना है, जिनमें से आधी घरेलू शिपयार्ड में बनेंगी. शुरुआती दो लॉन्च हो चुकी हैं, लेकिन प्रोपल्शन प्रणाली में अड़चन आ चुकी है. जर्मनी के MTU इंजन पर प्रतिबंध लगने के बाद इन्हें चीन के CHD-620 डीज़ल इंजन पर स्विच करना पड़ा. यही इंजन इस्तेमाल करने वाली थाई नौसेना की S26T पनडुब्बियों को एकीकरण की समस्याओं के कारण तीन साल से अधिक की देरी झेलनी पड़ी. पाकिस्तान के लिए चिंता सिर्फ़ समय पर डिलीवरी नहीं, बल्कि यह भी है कि नए इंजन रेंज, स्पीड और कम शोर वाली चाल में अपेक्षित प्रदर्शन दे पाएंगे या नहीं.
मुश्किल समुद्र में सफ़र
भले ही हैंगोर पूरी संख्या में सेवा में आ जाएं, उन्हें ऐसे जलक्षेत्र में उतरना होगा जहां भारतीय निगरानी पहले से मज़बूत है. लंबी दूरी के गश्ती विमान, डिपिंग सोनार, सोनार से लैस कॉर्वेट और तटीय ASW जहाज़—ये सभी पनडुब्बियों को पकड़ने के कई मौके बढ़ा देते हैं. नतीजतन, पाकिस्तानी पनडुब्बियों को संक्रमण क्षेत्रों में धीमी गति से चलना पड़ सकता है, जिससे उनकी गश्ती अवधि और कम हो जाएगी. रखरखाव, क्रू प्रशिक्षण और तकनीकी खामियों जैसी चुनौतियां इस पर और बोझ डालती हैं, जिससे किसी भी समय मिशन के लिए तैयार पनडुब्बियों की संख्या सीमित रहने की संभावना है.
पानी के नीचे संतुलन
भारत का पनडुब्बी-रोधी निवेश रणनीतिक रूप से पहले ही असर दिखा रहा है. कई स्तरों वाली डिटेक्शन व्यवस्था दुश्मन को नष्ट करने से ज़्यादा उसे सतर्क करने का काम करती है. ताकि वह समुद्र में कदम रखने से पहले ही दो बार सोचे. बांग्लादेश और म्यांमार के अनुभव दिखाते हैं कि पनडुब्बी की प्रदर्शनी क्षमता और संकट में उसकी वास्तविक क्षमता के बीच बड़ा फ़र्क हो सकता है.
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