इस्लामाबाद/लाहौर: पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सवाल एक बार फिर उठ खड़े हुए हैं. इस बार निशाने पर है अहमदिया मुस्लिम समुदाय, जिसे देश के कुछ हिस्सों में ईद जैसे निजी धार्मिक पर्व को मनाने से भी रोका जा रहा है.
पंजाब और सिंध प्रांतों में प्रशासनिक निर्देशों और सामाजिक दबाव के चलते अहमदिया नागरिकों से हलफनामे साइन कराए जा रहे हैं, जिनमें उन्हें धार्मिक रिवाज न निभाने की ‘सहमति’ देनी पड़ रही है. ईद-उल-अजहा से पहले धमकी भरे अंदाज़ में कहा गया है कि उल्लंघन पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगेगा.
धार्मिक स्वतंत्रता या नियंत्रण का प्रयास?
पाकिस्तान में लगभग 20 लाख की आबादी वाला अहमदिया समुदाय पिछले कई दशकों से कानूनी, सामाजिक और धार्मिक बहिष्कार का सामना कर रहा है. मीडिया रिपोर्ट्स और मानवाधिकार संगठनों के अनुसार:
यह घटनाक्रम ऐसे समय में सामने आया है जब पाकिस्तान 7 जून को ईद-उल-अजहा मनाने जा रहा है.
कानून या धार्मिक पहचान पर नियंत्रण?
1974 में पाकिस्तान ने संवैधानिक संशोधन द्वारा अहमदियों को ‘गैर-मुस्लिम’ घोषित कर दिया था. इसके बाद 1984 में पाकिस्तान दंड संहिता की धारा 298 के तहत अहमदियों पर सार्वजनिक तौर पर इस्लामिक प्रतीकों का उपयोग, नमाज पढ़ना, या खुद को मुस्लिम कहना दंडनीय अपराध बना दिया गया.
बार काउंसिल की चिट्ठी और बढ़ती संवेदनहीनता
हाल ही में लाहौर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने पंजाब पुलिस प्रमुख को पत्र लिखकर अहमदियों के धार्मिक रिवाजों को ‘मुस्लिम भावनाओं को ठेस पहुंचाने’ वाला कार्य बताया. इस पत्र के बाद स्थानीय प्रशासन ने अहमदियों पर और भी शिकंजा कस दिया.
यह सवाल खड़ा करता है:
अहमदिया समुदाय की पृष्ठभूमि
अहमदिया आंदोलन की शुरुआत 1889 में मिर्जा गुलाम अहमद ने की थी, जिनका संदेश था- शांति, प्रेम, और सभी धर्मों की शिक्षाओं से समरसता.
उनका मानना था कि:
इसी विचारधारा के चलते उन्हें कट्टरपंथी धारा ने न केवल अस्वीकार किया, बल्कि काफिर और गैर-मुस्लिम भी घोषित कर दिया.
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया और दबाव
मानवाधिकार संगठनों जैसे कि एम्नेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच और यूएनएचआरसी ने बार-बार पाकिस्तान से अहमदिया समुदाय के संवैधानिक और धार्मिक अधिकारों की रक्षा की अपील की है. जून 2024 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार:
क्या धार्मिक स्वतंत्रता सिर्फ बहुसंख्यकों का विशेषाधिकार?
पाकिस्तान की लोकतांत्रिक पहचान पर तब सवाल उठते हैं, जब नागरिकों को अपने घर के भीतर भी आस्था व्यक्त करने की स्वतंत्रता नहीं होती. यह ना सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि इस्लाम की मूल भावना- ‘ला इकराहा फिद्दीन’ (धर्म में कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं है) के भी खिलाफ है.
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