समुद्र का बढ़ता स्तर, बदलता मौसम और बिगड़ता पारिस्थितिक संतुलन यह सब मिलकर पृथ्वी पर मौजूद कई छोटे द्वीपीय राष्ट्रों के अस्तित्व को सीधा खतरा दे रहे हैं. मालदीव, तुवालु, किरिबाती, मार्शल आइलैंड्स जैसे देशों की स्थिति इस कदर गंभीर हो चुकी है कि वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं: यदि स्थिति नहीं सुधरी, तो आने वाले दशकों में ये देश पूरी तरह से समुद्र में समा सकते हैं.
लेकिन सवाल सिर्फ भौगोलिक अस्तित्व का नहीं है. यदि एक देश की ज़मीन पूरी तरह डूब जाए, तो क्या वह देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर "स्टेट" बना रह सकता है? क्या उसके नागरिकों के पास अब भी राष्ट्रीय पहचान होगी? क्या उसे संयुक्त राष्ट्र में स्थान मिलेगा? और सबसे अहम- क्या वह समुद्री संसाधनों पर दावा कर पाएगा?
आइए, इस जटिल और भावी संकट को विस्तार से समझते हैं.
समुद्र खा जाए ज़मीन: द्वीपीय देशों की सबसे बड़ी चिंता
जलवायु परिवर्तन के चलते दुनियाभर के समुद्रों का स्तर लगातार बढ़ रहा है. इसके कारण, धरती के सबसे छोटे और निचले इलाकों में बसे द्वीप-देशों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है. इनमें प्रमुख हैं:
इन देशों में बाढ़, तटीय कटाव, तूफान, पीने के पानी की कमी और बुनियादी ढांचे को नुकसान आम होता जा रहा है. कई वैज्ञानिक रिपोर्ट्स कहती हैं कि यदि वैश्विक तापमान वृद्धि को रोका नहीं गया, तो ये द्वीप स्थायी रूप से जलमग्न हो सकते हैं.
अगर जमीन ही न बचे, तो क्या देश रहेगा?
अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत, किसी देश को "राज्य" या "State" मानने के लिए चार मुख्य तत्वों की आवश्यकता होती है:
अन्य देशों के साथ संबंध स्थापित करने की क्षमता (Capacity to Enter into Relations)
अब यदि कोई द्वीप देश पूरी तरह डूब जाए, तो दो सबसे अहम तत्व भू-भाग और स्थायी जनसंख्या समाप्त हो जाते हैं. इसके साथ ही सरकार की प्रभावशीलता और अंतरराष्ट्रीय संपर्क की व्यवहारिकता पर भी असर पड़ सकता है. तो क्या इसका अर्थ यह है कि वह देश कानूनी रूप से "मिट" जाएगा?
हालांकि पारंपरिक रूप से उपरोक्त चार तत्वों को स्टेटहुड के लिए ज़रूरी माना जाता है, लेकिन व्यवहार में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इससे कुछ लचीलापन भी दिखाया है.
उदाहरण के लिए:
सोमालिया और यमन जैसे देशों में सरकार की प्रभावशीलता लगभग नहीं के बराबर है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें अब भी "स्वतंत्र राज्य" के रूप में मान्यता प्राप्त है.
कई ऐसे देश भी हैं जिनके कुछ हिस्सों पर नियंत्रण दूसरे देशों या विद्रोही समूहों के पास है, फिर भी उनकी पहचान और संप्रभुता मान्य रहती है.
इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि राज्य का दर्जा केवल भौगोलिक आधार पर नहीं खत्म होता, बल्कि इसमें राजनीतिक और कानूनी मान्यता की भी बड़ी भूमिका होती है.
डिजिटल राष्ट्र: देश धरती पर नहीं, तो ऑनलाइन रहेगा?
इस संकट को देखते हुए कुछ द्वीपीय देशों ने नवीन और असाधारण प्रयास शुरू किए हैं. सबसे अग्रणी नाम है तुवालु, जिसने समुद्र में डूबने की आशंका को ध्यान में रखते हुए खुद को "डिजिटल स्टेट" के रूप में संरक्षित करने का प्रयास शुरू किया है.
तुवालु की तैयारी:
तुवालु की योजना यह है कि अगर भविष्य में उसकी पूरी जमीन जलमग्न हो जाती है, तब भी डिजिटल माध्यम से वह स्टेट के रूप में पहचान बनाए रखेगा.
मालदीव का अलग रास्ता: इंजीनियरिंग समाधान
तुवालु जहां डिजिटल भविष्य की ओर बढ़ रहा है, वहीं मालदीव ने तकनीकी और भौतिक समाधान पर ध्यान केंद्रित किया है. मालदीव सरकार उंचे कृत्रिम द्वीपों के निर्माण पर कार्य कर रही है, ताकि समुद्र के बढ़ते जलस्तर से निपटा जा सके.
इसके तहत:
द्विपक्षीय संधियाँ और स्थानांतरण
तुवालु ने ऑस्ट्रेलिया के साथ एक ऐतिहासिक समझौता किया है, जिसके तहत यदि तुवालु जलमग्न हो जाता है, तो उसके नागरिकों को ऑस्ट्रेलिया में पुनर्वास दिया जाएगा. लेकिन साथ ही, तुवालु की अंतरराष्ट्रीय मान्यता बनी रहेगी.
यह कदम एक बड़े सवाल को जन्म देता है: यदि पूरी जनसंख्या किसी दूसरे देश में स्थानांतरित हो जाए, तो क्या उनका मूल देश अब भी मौजूद रहेगा?
ICJ की राय: कुछ संकेत, लेकिन स्पष्टता नहीं
2023 में, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) ने जलवायु परिवर्तन और देशों के कानूनी दायित्वों पर एक परामर्शपूर्ण राय जारी की. इसमें कोर्ट ने माना कि जलवायु परिवर्तन छोटे द्वीप देशों के अस्तित्व को सीधा खतरा है.
एक अहम टिप्पणी में ICJ ने कहा, "एक बार राज्य बनने के बाद, उसके किसी एक आवश्यक तत्व के खत्म हो जाने मात्र से राज्य का अस्तित्व स्वतः समाप्त नहीं हो जाएगा."
हालांकि यह टिप्पणी द्वीपीय देशों के लिए उम्मीद की किरण हो सकती है, लेकिन कोर्ट ने इस पर कोई अंतिम फैसला नहीं दिया. इससे यह स्पष्ट होता है कि इस विषय पर अंतरराष्ट्रीय कानून में अब भी अस्पष्टता बनी हुई है.
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