वॉशिंगटन: दक्षिण पूर्व एशिया में उभरते युद्ध के हालात ने वैश्विक चिंता को जन्म दिया है. कंबोडिया और थाईलैंड के बीच पिछले हफ्तों से चल रहा सीमावर्ती संघर्ष अब पूर्ण सैन्य टकराव में तब्दील हो चुका है, और इस बीच अमेरिका की राजनीतिक सक्रियता इस क्षेत्र की कूटनीतिक दिशा को नया मोड़ दे रही है.
शनिवार शाम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व से बातचीत कर सीजफायर (युद्धविराम) की अपील की. उन्होंने साफ शब्दों में चेतावनी दी कि यदि यह संघर्ष नहीं थमता, तो अमेरिका उन देशों के साथ व्यापारिक सहयोग और समझौतों को रोक देगा जो युद्ध का रास्ता अपनाएंगे.
ट्रंप का हस्तक्षेप: चेतावनी भी, बातचीत का प्रस्ताव भी
डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट में कहा, "मैंने कंबोडिया के प्रधानमंत्री हुन मानेट से स्पष्ट कहा है कि युद्ध तुरंत रोका जाए. थाईलैंड के कार्यवाहक प्रधानमंत्री फुमथम वेचायाचाई से मेरी बातचीत जारी है. मैं चाहता हूं कि दोनों देश तत्काल युद्धविराम पर सहमत हों. अमेरिका का सिद्धांत साफ है — हम युद्धरत देशों के साथ व्यापारिक समझौते नहीं करते."
ट्रंप की यह चेतावनी केवल कूटनीतिक बयान नहीं, बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया में अमेरिका की नीतिगत प्राथमिकताओं का स्पष्ट संकेत है. ट्रंप प्रशासन क्षेत्र में अमेरिका की भूमिका को केवल एक पर्यवेक्षक की बजाय निर्णायक शक्ति के रूप में पेश करना चाहता है — ठीक वैसे ही जैसे वह 2024 में इज़रायल-गाज़ा संघर्ष के दौरान करना चाहता था.
भारत-पाकिस्तान संघर्ष से तुलना: ट्रंप
ट्रंप ने थाईलैंड-कंबोडिया विवाद को भारत और पाकिस्तान के बीच के संघर्ष से जोड़ते हुए कहा, "यह मुझे भारत और पाकिस्तान के बीच के उस संघर्ष की याद दिलाता है जिसे हमने सफलतापूर्वक रोका था."
ट्रंप यहां 2025 की शुरुआत में भारत-पाक के बीच बढ़ते तनाव का जिक्र कर रहे थे, जब दोनों देशों के बीच सीमित सैन्य झड़पें हुई थीं. उस वक्त ट्रंप ने दावा किया था कि उनके हस्तक्षेप से तनाव कम हुआ, हालांकि भारत ने उनके इस बयान को महत्व नहीं दिया था और किसी भी अमेरिकी मध्यस्थता से इनकार किया था.
फिर भी, ट्रंप की यह रणनीति स्पष्ट करती है कि वह खुद को एक ‘ग्लोबल पीसब्रोकर’ के रूप में स्थापित करना चाहते हैं — खासकर ऐसे समय में जब अमेरिका की वैश्विक छवि को चीन, रूस और ईयू की ओर से कड़ी चुनौती मिल रही है.
थाईलैंड और अमेरिका: सामरिक समीकरण
थाईलैंड और अमेरिका के संबंध केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी हैं. दोनों देश Mutual Defense Treaty के तहत सहयोगी हैं और इंडो-पैसिफिक में चीन की बढ़ती उपस्थिति के बीच थाईलैंड अमेरिका की Indo-Pacific रणनीति का एक अहम हिस्सा बन चुका है.
इसलिए बैंकॉक में राजनीतिक अस्थिरता या सैन्य संघर्ष अमेरिका के सामरिक हितों के खिलाफ है. ट्रंप प्रशासन के लिए जरूरी है कि थाईलैंड एक स्थिर, लोकतांत्रिक और अमेरिका समर्थक राष्ट्र बना रहे — और यही वजह है कि वॉशिंगटन इस युद्ध को शुरुआती दौर में ही थाम लेना चाहता है.
कंबोडिया: अमेरिका की चिंताएं गहरी
दूसरी ओर कंबोडिया पिछले कुछ वर्षों से चीन के काफी करीब आया है. दक्षिण चीन सागर में सैन्य बंदरगाहों, विशेष आर्थिक क्षेत्रों और हथियारों की डील के जरिए बीजिंग और फ्नोम पेन्ह के रिश्ते मज़बूत हुए हैं.
इसलिए अगर थाईलैंड और कंबोडिया के बीच यह युद्ध बढ़ता है, और अमेरिका पूरी तरह थाईलैंड के साथ खड़ा होता है, तो यह संघर्ष धीरे-धीरे एक प्रॉक्सी वॉर का स्वरूप भी ले सकता है — जिसमें अमेरिका और चीन आमने-सामने खड़े दिख सकते हैं.
क्या अमेरिका करेगा सैन्य हस्तक्षेप?
यह अभी तय नहीं है कि अमेरिका इस संघर्ष में केवल कूटनीतिक दबाव तक सीमित रहेगा या आगे चलकर सैन्य सहयोग की दिशा में भी कदम बढ़ाएगा. हालांकि, कुछ रणनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि संघर्ष लंबा खिंचता है और नागरिक हताहतों की संख्या बढ़ती है, तो अमेरिका संयुक्त राष्ट्र के ज़रिए मानवीय हस्तक्षेप, सैन्य मदद या क्षेत्रीय शांति-सेना की मांग कर सकता है.
यह वही रास्ता होगा जो अमेरिका ने बाल्कन युद्धों, सीरिया संघर्ष और अफगानिस्तान में अपनाया था — पहले बातचीत, फिर प्रतिबंध, फिर सैन्य मौजूदगी.
आगे क्या?
सीजफायर वार्ता की संभावना: अमेरिका दोनों देशों को एक ‘तटस्थ मध्यस्थ देश’ में बातचीत के लिए राज़ी कर सकता है. इसमें इंडोनेशिया या सिंगापुर की भूमिका हो सकती है.
व्यापारिक प्रतिबंध: अमेरिका द्वारा प्रस्तावित ‘नो वॉर, नो डील’ नीति लागू होती है, तो यह थाईलैंड और कंबोडिया दोनों की अर्थव्यवस्थाओं पर गहरा असर डालेगी.
चीन की प्रतिक्रिया: यदि अमेरिका की सक्रियता बढ़ती है, तो चीन की प्रतिक्रिया इस पूरे समीकरण को और जटिल बना सकती है.
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