तेहरान/लंदन: ईरान में एक बार फिर 1988 के सियासी नरसंहार जैसे भयावह हालात बनने लगे हैं. ब्रिटिश अखबार द सन ने खुफिया सूत्रों के हवाले से बताया कि, इस्लामिक गणराज्य की मौजूदा सत्ता व्यवस्था, विशेष रूप से सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई के निर्देशों के तहत, देश में सैकड़ों राजनीतिक कैदियों को चुपचाप फांसी पर चढ़ाने की योजना बना रही है. ये वही खामेनेई हैं, जो 1988 के चर्चित जनसंहार के दौरान भी सत्ता की शीर्ष परछाइयों में सक्रिय थे और आज भी पूरे शासन की बागडोर उनके हाथ में है.
ब्रिटिश अखबार द सन और अन्य पश्चिमी स्रोतों ने दावा किया है कि यह 'राज्य प्रायोजित सजा-ए-मौत का दौर' सिर्फ अपराधियों के खिलाफ नहीं, बल्कि लोकतंत्र, महिला अधिकार और आजादी की मांग करने वालों के खिलाफ है. यह किसी युद्ध का नतीजा नहीं, बल्कि विचारों की आजादी के लिए खड़े होने की कीमत है और वह कीमत है मौत.
दो राजनीतिक कैदियों की फांसी बनी आग़ाज़
अभी हाल ही में ईरान में दो प्रमुख राजनीतिक कैदियों- 48 वर्षीय मेहदी हसनी और 70 वर्षीय बेहरूज़ एहसानी को चुपचाप फांसी दे दी गई. रिपोर्ट्स के अनुसार, इन पर लगाए गए आरोप स्पष्ट रूप से राजनीति से प्रेरित थे. इन दोनों ने न तो कोई हथियार उठाया और न ही किसी हिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया. उनका अपराध सिर्फ इतना था कि उन्होंने मौलवियों के शासन के खिलाफ आवाज बुलंद की थी और मानवाधिकार की बात की थी.
मेहदी हसनी के तीन बच्चों ने जेल से मिले उनके अंतिम पत्र का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने इस्लामी शासन की नीतियों की तीखी आलोचना करते हुए कहा था कि "हमें मारा जाएगा, लेकिन विचारों को कभी बंद नहीं किया जा सकता." वहीं बेहरूज़ एहसानी ने अपने आखिरी संदेश में लिखा, "मैं जनता के अधिकारों के लिए फांसी पर झूलने को तैयार हूं, ताकि आने वाली पीढ़ियां स्वतंत्र सांस ले सकें."
क्या 1988 दोहराया जा रहा है?
1988 में ईरान में जो हुआ, उसे आज भी विश्व मानवाधिकार इतिहास का एक काला अध्याय माना जाता है. इराक से युद्धविराम के बाद उस समय की सत्ता को डर था कि राजनीतिक असंतोष बगावत में बदल सकता है. इसी डर में हज़ारों राजनीतिक कैदियों को फर्जी मुकदमों में फंसाकर फांसी दे दी गई. उन्हें रातों-रात जेलों से उठाकर क्रेनों से लटकाकर मौत के घाट उतार दिया गया और उनके शव गुप्त कब्रिस्तानों में दफना दिए गए.
अब 2025 में फिर वैसा ही एक परिदृश्य बन रहा है. सरकारी मीडिया संस्थानों, जैसे फार्स न्यूज एजेंसी, ने खुले तौर पर 1988 के जनसंहार को दोहराने की मांग की है. इतना ही नहीं, पीपुल्स मोजाहिदीन जैसे लोकतांत्रिक संगठनों के सदस्यों को खुलकर धमकियां दी जा रही हैं और कई को पहले ही 'राजद्रोह' के नाम पर मौत की सजा सुनाई जा चुकी है.
जेलों से उठ रही कराह, दुनिया सुन रही है?
ईरान की जेलों की हालत किसी यातना शिविर से कम नहीं है. NCRIE (नेशनल काउंसिल ऑफ रेसिस्टेंस ऑफ ईरान) की रिपोर्ट के मुताबिक, कैदियों को बेल्टों से पीटा जाता है, उन्हें जिंदा रहने लायक खाना भी नहीं दिया जाता और कई बार उन्हें सोलिटरी कन्फाइनमेंट में डाल दिया जाता है. पिछले 25 सालों से जेल में बंद राजनीतिक कैदी सईद मसूरी ने हाल ही में एक हस्तलिखित खत में कहा, "1988 जैसे नरसंहार को दोहराया जा रहा है, बस तरीका बदला है, इरादा वही है — डर और दबाव से सत्ता बनाए रखना."
ह्यूमन राइट्स वॉच, एमनेस्टी इंटरनेशनल और संयुक्त राष्ट्र के कई मानवाधिकार विशेषज्ञों ने ईरान सरकार के इस ‘गुप्त मौत अभियान’ पर कड़ा विरोध जताया है. NCRIE की अध्यक्ष मरियम रजवी ने स्पष्ट रूप से संयुक्त राष्ट्र से कार्रवाई की मांग करते हुए कहा, "यह शासन अब अपने अंतिम चरण में है. यह क्रूरता उनके अपने पतन की पटकथा लिख रही है."
शव भी नहीं लौटाए जाते, ग़म में डूबे परिवार
मेहदी हसनी की बेटी के अनुसार, "हमें उनके फांसी की सूचना तक नहीं दी गई. न अंतिम दर्शन हुए, न अंतिम विदाई. उनका शव भी हमें नहीं सौंपा गया." यह कहानी अकेले हसनी परिवार की नहीं है, बल्कि उन सैकड़ों परिवारों की है जो अपने प्रियजनों को खो चुके हैं- बिना किसी न्याय के, बिना किसी वजह के.
2023 में जहां 834 लोगों को ईरान में फांसी दी गई थी, वहीं 2024-25 में यह आंकड़ा 1000 पार कर चुका है. और अब अगर खुफिया रिपोर्टों पर यकीन करें तो अगली कतार में सैकड़ों और कैदी हैं — जिनका 'अपराध' सिर्फ इतना है कि उन्होंने सरकार से सवाल पूछा.
अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की मांग
ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों में इस विषय पर बहस तेज हो गई है. कई ब्रिटिश सांसदों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने अपनी सरकार से अपील की है कि वह ईरान के खिलाफ कड़े प्रतिबंध लगाए और संयुक्त राष्ट्र के मंच पर इस मुद्दे को गंभीरता से उठाया जाए.
अब सवाल यह है कि क्या दुनिया फिर से एक और '1988' को चुपचाप देखेगी? या इस बार पीड़ितों की चीखें अंतरराष्ट्रीय मंच पर गूंजेंगी और सत्ता के गलियारों में बैठे सत्ताधीशों को रोकने की कोई ठोस पहल होगी?
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