नई दिल्ली: ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय सेना ने जो पराक्रम दिखाया, उसने न केवल पाकिस्तान को झकझोरा, बल्कि दुनिया को यह एहसास भी कराया कि भारत अब किसी भी हमले का जवाब देने में सक्षम और निर्णायक बन चुका है. लेकिन इस शानदार सफलता के बीच एक बेहद गंभीर सवाल खड़ा होता है- क्या भारत के पास ऐसे अभियानों को बार-बार अंजाम देने की पर्याप्त सामरिक ताकत है?
यह सवाल इसलिए और अहम हो जाता है क्योंकि भारत की वायुसेना, जो किसी भी युद्ध की रीढ़ होती है, लड़ाकू विमानों की भारी कमी से जूझ रही है. यह लेख इसी महत्वपूर्ण पहलू की पड़ताल करता है, क्या भारत मौजूदा हालात में चीन-पाक गठजोड़ जैसे शक्तिशाली दुश्मनों के चक्रव्यूह को भेदने की स्थिति में है?
वायुसेना का संकट: स्क्वॉड्रन घटे, चुनौती बढ़ी
भारतीय वायुसेना को कुल 42 स्क्वॉड्रन की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में केवल 31 स्क्वॉड्रन ही ऑपरेशनल हैं. उनमें से भी मिग-21 जैसे पुराने लड़ाकू विमानों के दो स्क्वॉड्रन अगले कुछ महीनों में रिटायर हो रहे हैं. यानी आने वाले समय में स्क्वॉड्रनों की संख्या गिरकर 29 तक पहुंच जाएगी.
एक स्क्वॉड्रन में औसतन 18 फाइटर जेट्स होते हैं. यानी भारत के पास करीब 522 लड़ाकू विमान ही बचेंगे, जबकि मानक के अनुसार उसे 756 विमानों की आवश्यकता है. यानी भारत के पास वर्तमान में करीब 234 विमानों की भारी कमी है. यह आंकड़ा चिंताजनक नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से खतरनाक है.
वहीं दूसरी ओर, दुश्मन की ताकत दोगुनी
भारत के लिए चुनौती सिर्फ आंतरिक नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें बाहरी समीकरणों से भी जुड़ी हैं. भारत के दो सबसे बड़े सामरिक विरोधी—चीन और पाकिस्तान, न केवल भारत के खिलाफ एक रणनीतिक साझेदारी निभा रहे हैं, बल्कि दोनों की वायुसेनाएं बेहद आक्रामक ढंग से आधुनिकीकरण कर रही हैं.
चीन:
पाकिस्तान:
दोनों देशों को मिलाकर कुल 1650 लड़ाकू विमान हैं, जो भारत की तुलना में तीन गुना अधिक हैं.
फाइटर जेट्स बनाना इतना आसान क्यों नहीं है?
कई लोग सोच सकते हैं कि जब भारत इतना बड़ा देश है और आर्थिक रूप से भी सशक्त हो रहा है, तो वह बस कुछ और विमान क्यों नहीं खरीद लेता? लेकिन हकीकत में लड़ाकू विमान खरीदना या बनाना, एयर कंडीशनर या मोबाइल फोन खरीदने जितना आसान नहीं होता.
इन देरी की प्रमुख वजहों में इंजन सप्लायर अमेरिकी कंपनी GE की लेट डिलीवरी और तकनीकी सीमाएं भी शामिल हैं.
भारत के विकल्प सीमित, चुनौतियां गंभीर
अमेरिका का F-35
रूस का SU-57
क्या भारत को सिर्फ बाहर से विमान खरीदने चाहिए?
यह एक महत्वपूर्ण रणनीतिक प्रश्न है. विदेशी खरीद तेजी से युद्ध क्षमता बढ़ा सकती है, लेकिन इससे देश की आत्मनिर्भरता प्रभावित होती है, और अरबों डॉलर विदेश चले जाते हैं. जबकि घरेलू निर्माण से न केवल पैसे देश में रहते हैं, बल्कि देश की डिफेंस इंडस्ट्री भी मजबूत होती है.
अगर भारत सभी 234 विमानों को विदेशी स्रोत से खरीदे, और प्रति यूनिट औसत लागत 2000 करोड़ रुपये मानी जाए, तो कुल लागत करीब 4.68 लाख करोड़ रुपये बैठेगी.
इतनी राशि में भारत अपने देश में उत्पादन कर न केवल विमानों की जरूरत पूरी कर सकता है, बल्कि भविष्य के लिए एक मजबूत एयरोस्पेस इंफ्रास्ट्रक्चर भी तैयार कर सकता है.
भारत की राह क्या होनी चाहिए?
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