धर्मशाला में जल्द ही एक खास मौका आने वाला है. यहां पर जब दलाई लामा अपना 91वां जन्मदिन मनाएंगे, तो माना जा रहा है कि वे अपने उत्तराधिकारी के बारे में कुछ अहम बातें सामने ला सकते हैं. यह सिर्फ धार्मिक या आध्यात्मिक घटना नहीं, बल्कि एक ऐसे सवाल की बारीक पड़ताल है, जो तिब्बती बौद्ध धर्म से कहीं आगे, राजनीतिक और रणनीतिक मायनों में भी बड़ी अहमियत रखता है.
उत्तराधिकारी का चयन: एक पारंपरिक लेकिन विवादित प्रक्रिया
तिब्बती बौद्ध धर्म में दलाई लामा का चयन एक अनूठी परंपरा से जुड़ा हुआ है, जो पुनर्जन्म की मान्यता पर आधारित है. वर्तमान दलाई लामा का जन्म 1935 में हुआ था, और उन्हें दो साल की उम्र में उनके पूर्वज के पुनर्जन्म के रूप में पहचाना गया था. परंपरा के अनुसार, जब भी एक दलाई लामा का निधन होता है, तो उनकी आत्मा किसी नवजात बच्चे में पुनर्जन्म लेती है, जिसे फिर एक खोजी दल विशेष परीक्षणों और संकेतों के आधार पर पहचानता है.
लेकिन आज की परिस्थिति बदल चुकी है. तिब्बत पर चीन के नियंत्रण के कारण इस प्रक्रिया में राजनीतिक जटिलताएं भी जुड़ गई हैं. चीन लगातार दावा करता है कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन में उसका अधिकार है, जबकि तिब्बती निर्वासित समुदाय और उनके समर्थक इस दखलअंदाजी को खारिज करते हैं.
क्यों है इस बार की घोषणा खास?
दलाई लामा ने हाल ही में एक पुस्तक लिखी है जिसका शीर्षक है "वॉयस फॉर द वॉइसलेस". इस पुस्तक में उन्होंने संकेत दिया है कि वे अपने उत्तराधिकारी के बारे में जानकारी जल्द ही देंगे. खास बात यह है कि उन्होंने कहा है कि अगला दलाई लामा चीन के बाहर ही जन्मेगा ताकि चीन की दखलंदाजी से बचा जा सके. वे यह भी खुले तौर पर कह चुके हैं कि उनका उत्तराधिकारी लड़का हो या लड़की, वयस्क हो या बच्चा, इसका अंतिम निर्णय तिब्बती धर्म और समुदाय की सहमति से होगा.
यह घोषणा न केवल तिब्बती धर्म के अनुयायियों के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह क्षेत्रीय और वैश्विक राजनीति में भी एक बड़ी घटना होगी. भारत, चीन और अमेरिका जैसे देश इस प्रक्रिया पर गहरी नजर रखे हुए हैं, क्योंकि दलाई लामा का आध्यात्मिक और राजनीतिक प्रभाव व्यापक है.
तिब्बत की जटिलता और दलाई लामा की भूमिका
1959 में माओत्से तुंग के कम्युनिस्ट शासन के तहत तिब्बत से निर्वासित होकर दलाई लामा धर्मशाला में आए. तब से वे यहां से तिब्बती निर्वासित सरकार और पूरे विश्व के तिब्बती बौद्धों के आध्यात्मिक नेता हैं. भारत में करीब 1 लाख से ज्यादा तिब्बती समुदाय रहते हैं, जिनका जीवन और पहचान दलाई लामा से जुड़ी है.
चीन तिब्बती मामलों में सख्त रुख रखता है और दलाई लामा को एक "अलगाववादी" मानता है. उसकी कोशिश रहती है कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन में वह अपना प्रभाव जमाए ताकि तिब्बती समुदाय पर नियंत्रण बना रहे. वहीं तिब्बती निर्वासित सरकार और उनके समर्थक चीन के इस दखल को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं.
क्या होगा दलाई लामा के बिना?
जैसे ही दलाई लामा का निधन होगा, उनकी आत्मा के पुनर्जन्म की तलाश शुरू होगी. तब तक धर्मशाला में स्थित तिब्बती निर्वासित सरकार ही तिब्बती लोगों का प्रतिनिधित्व करेगी और आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक मामलों को संभालेगी. 2015 में दलाई लामा ने गादेन फोडरंग फाउंडेशन की स्थापना की थी, जो उनके उत्तराधिकारी की खोज और मान्यता की जिम्मेदारी संभालेगा.
भारत और अमेरिका की भूमिका
भारत में तिब्बती समुदाय की आज़ादी और सुरक्षा को लेकर गहरा समर्थन है. हालांकि चीन के साथ तनाव की वजह से यह मामला संवेदनशील भी बना हुआ है. वहीं अमेरिका लगातार तिब्बती मानवाधिकारों की पैरवी करता आया है और चीन पर तिब्बत के अधिकारों के संरक्षण के लिए दबाव बनाता है. पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी तिब्बत की स्वायत्तता को लेकर चीन पर कड़ा रुख अपनाया था.
ये भी पढ़ेंः फोन चार्ज कर रहे थे लोग, तभी आसमान से बरस पड़ी मौत; मलबे में बदल गया कैफे