Uttarkashi Cloudburst: उत्तरकाशी के धराली क्षेत्र में मंगलवार को आसमान से कहर बरपा. सीधी खड़ी ऊंची पहाड़ियों के बीच फंसे बादल फट पड़े और कुछ ही पलों में सैलाब ने जनजीवन को तहस-नहस कर दिया. न किसी को संभलने का मौका मिला, न ही भागने का. यह घटना एक बार फिर हमें चेतावनी दे गई कि प्रकृति से छेड़छाड़ और बदलती जलवायु का खामियाजा हमें किस रूप में भुगतना पड़ सकता है.
नैनीताल स्थित आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान (ARIES) के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. नरेंद्र सिंह के अनुसार, हिमालयी क्षेत्रों में इस तरह की घटनाएं अब लगातार बढ़ रही हैं. धराली की भौगोलिक बनावट ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और तंग घाटियां—ऐसी आपदाओं के लिए अनुकूल ज़मीन तैयार करती हैं. बादलों को निकलने का रास्ता नहीं मिलता, और जब उनमें अत्यधिक नमी भर जाती है, तो फटने जैसी घटनाएं सामने आती हैं.
क्यों फटते हैं बादल? और कैसे बचा जा सकता है?
डॉ. सिंह बताते हैं कि बादल फटने की घटनाएं दुर्लभ जरूर होती हैं, लेकिन जब होती हैं, तो तबाही साथ लाती हैं. खासकर मानसून के दौरान, जब वातावरण में नमी अधिक होती है और पहाड़ी इलाकों में बादल टिक जाते हैं. बड़ी बात ये है कि आज की तारीख में वैज्ञानिक रूप से बादल फटने को रोकने का कोई तरीका मौजूद नहीं है. ऐसे में सतर्क रहना ही सबसे बड़ी सुरक्षा है. डॉ. सिंह का सुझाव है कि पहाड़ों में घर बनाते समय केवल खूबसूरत नज़ारों का नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और भौगोलिक परिस्थितियों का भी ध्यान रखना चाहिए. नदियों, गधेरों और पहाड़ी ढलानों के पास घर बसाने से बचना चाहिए, विशेषकर मानसून के समय.
हिमालयी क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित
हिमालय अब पहले जैसे नहीं रहे. डॉ. नरेंद्र सिंह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर सबसे अधिक इसी क्षेत्र में देखने को मिल रहा है. बर्फबारी का पैटर्न बदल गया है, बारिश की तीव्रता असामान्य हो चुकी है, और बादल फटने जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं. इन सबका एक ही समाधान है, पर्यावरण का संरक्षण. जब तक हम प्राकृतिक संतुलन को नहीं समझेंगे और उसी के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, तब तक आपदाएं इसी तरह हमारे दरवाजे पर दस्तक देती रहेंगी.
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